सामाजिक विज्ञान का अर्थ, विशेषताएँ, विषय क्षेत्र तथा आवश्यकता

सामाजिक विज्ञान का अर्थ, विशेषताएँ, विषय क्षेत्र तथा आवश्यकता का वर्णन
सामाजिक विज्ञान की विषयवस्तु मानव का सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अध्ययन है। मानव समाज की संरचना बड़ी जटिल है, कोई भी शिक्षक उन सभी जटिलताओं का अध्ययन कराने में एवं कोई भी शिक्षार्थी उनका अधिगम करने में सक्षम नहीं कहा जा सकता। इसलिए इसकी जटिलताओं को समझने तथा जानने का प्रयत्न मानव अपने तरीके से करता रहा है।

सामाजिक विज्ञानों की विषयवस्तु एक-दूसरे से कई बार समान तथा मिलती-जुलती दिखाई देती है, पर उनके अध्ययन का तरीका ही उनके अलग-अलग स्वरूप निर्धारित करता है। सभी विद्वान अपने-अपने तरीके से उनमें समानता तथा असमानता दर्शाते रहते हैं।

सामाजिक विज्ञान का अर्थ :

सामाजिक विज्ञान का अर्थ समझने से पहले हमें समाज का अर्थ समझना होगा। समाज शब्द का अर्थ वेब्स्टर न्यू ट्वन्टियथ सेन्चुरी डिक्शनरी’ के अनुसार समाज के अंतर्गत “मानव के एक समूह में साथ रहने के परिणामस्वरूप वे एक-दूसरे के साथ सामाजिक चेतना, सामाजिक विकास तथा सामाजिक समस्याओं के बारे में किस प्रकार का व्यवहार करते हैं, इस तथ्य का अध्ययन किया जाता है।”

समाज का अर्थ समझने के पश्चात् सामाजिक विज्ञान का अर्थ वेब्स्टर न्यू ट्वन्टियथ सेन्चुरी डिक्शनरी में इस तरह है- “व्यक्ति अपने परिवार, जाति, वर्ग, कुटुम्ब तथा समुदाय में किस तरह रहता है, आदि का अध्ययन सामाजिक विज्ञान में किया जाता है।” सामाजिक विज्ञान में मनुष्य का समाज में रहते हुए अध्ययन है, इसके अंतर्गत मानव समूह तथा समुदाय के परस्पर कार्यों का विश्लेषण किया जाता है अर्थात् सामाजिक विज्ञान में मनुष्य की उन घटनाओं का अध्ययन किया जाता है, जिनसे यह पता चलता है कि मनुष्य की समाज के प्रति क्या-क्या गतिविधियाँ हैं और इन गतिविधियों से स्वयं मनुष्य एवं उसका सामूहिक जीवन किस तरह प्रभावित होता है।

परिभाषायें

सामाजिक विज्ञान मानव समाज के संपूर्ण ज्ञान, सत्य तथा सामान्य सिद्धांतों में परिचित कराता है। इसकी विभिन्न परिभाषायें स्पष्ट करती हैं कि सामाजिक विज्ञान भी एक विज्ञान ही है।

विभिन्न सामाजिक वैज्ञानिकों ने सामाजिक विज्ञान की परिभाषा तथा क्षेत्र भिन्न-भिन्न प्रकार से बताये हैं, इनमें से मुख्य निम्न प्रकार से हैं-

सामाजिक विज्ञान विश्वकोश के अनुसार- “वे मानसिक तथा सांस्कृतिक विज्ञान एवं एकल व्यक्ति की क्रियायें जो समाज के एक अंग के रूप में, एक समूह के सदस्य के रूप में, एक व्यक्ति विशेष से संबंध रखती हैं।”

इस परिभाषा को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि सामाजिक विज्ञान में उस मानव का अध्ययन किया जाता है जो एक समाज या समूह में रहता है. न कि एकाकी रहता है तथा उसकी क्या गतिविधियाँ हैं। इस तरह इस विज्ञान में वे सभी विषय भी शामिल है जिनका मानव के मस्तिष्क और संस्कृति से संबंध है।

न्यू सेन्चुरी डिक्शनरी के अनुसार- “सामाजिक विज्ञान उन विज्ञानों का समूह है, जो मानव की परिस्थिति, अस्तित्व तथा समुदाय में उसके स्थान की विवेचना करता है।”

मेकपिलन मॉडर्न डिक्शनरी के अनुसार-“यह विज्ञान समाज के विकास एवं उसकी संरचना का अध्ययन करता है।”

वेब्स्टर थर्ड न्यू इण्टरनेशनल डिक्शनरी के अनुसार- “सामाजिक विज्ञान ज्ञान जगत की वह शाखा है जो मानव समाज के कार्य एवं उससे संबंधित संस्थाओं तथा मानवीय संबंधों की व्याख्या करता है।”

पीटर लुइस के अनुसार- “सामाजिक विज्ञान उन नियमों से संबंध रखते हैं जो मनुष्य के समाज तथा सामाजिक विकास को संचालित करते हैं।”

चार्ल्स ए. वीयर्ड के अनुसार- “सामाजिक विज्ञान मानवीय क्रिया-कलापों का अध्ययन करता है। यह मानव समाज का विकास एवं उसके सामूहिक विचार द्वारा मानवीय ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाता है, इसका भी अध्ययन करता है।”

एन.के. मेकेन्जीन के शब्दों में- “सामाजिक विज्ञान में वह समस्त शैक्षणिक आयाम हैं जो मनुष्य तथा उसके सामाजिक परिवेश से जुड़े हैं। इसमें मानव समूह की बनावट एवं गुणों का अध्ययन करते हैं, एकाकी व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों और उनके वातावरण के साथ किस तरह का व्यवहार करता है।’

एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार- “सामाजिक विज्ञान, सामाजिक मानव व्यवहार का एक सुव्यवस्थित खोजपूर्ण अध्ययन है।”

एनसाइक्लोपीडिया ऑफ एजूकेशन रिसर्च के अनुसार- “सामाजिक विज्ञान विधिवत् सामग्रियों का वह समूह है जो मानव के मानवीय संबंधों से संबंध रखती हैं।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन एवं विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सामाजिक विज्ञान में उस मानव इकाई का अध्ययन किया जाता है, जो समाज में रहता है एवं इसमें मानव समूह के अन्य मानवों तथा संस्थाओं से संबन्धों का विश्लेषण किया जाता है।

इस तरह सामाजिक विज्ञान में मानव समुदाय से संबंधित विभिन्न पहलओं के प्रामाणिक ज्ञान का व्यवस्थित और विस्तृत अध्ययन किया जाता है।

सामाजिक विज्ञान की विशेषतायें :

सामाजिक विज्ञान की विशेषताओं को निम्न तरह से गिनाया जा सकता है-

1. सामाजिक विज्ञान में मनुष्य के बहुआयामी क्रिया-कलापों का अध्ययन किया जाता है।

2. मनुष्य का अध्ययन समाज की एक इकाई के रूप में किया जाता है अर्थात केवल उन्हीं मनुष्यों की गतिविधियों का अध्ययन होता है, जो समाज के अंग है।

3. सामाजिक विज्ञान में मनुष्यों के सामाजिक तथ्यों का अध्ययन है।

4. ज्ञान जगत में सामाजिक विज्ञान एक नवीन आयाम है।

सामाजिक विज्ञान का विषय-क्षेत्र :

समस्त ज्ञान को क्रमिक रूप से तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-

1. प्राकृतिक विज्ञान, 2. मानविकी, 3. सामाजिक विज्ञान।

ज्ञान जगत के विश्लेषण के आधार पर हमने सामाजिक विज्ञान को तीसरे स्थान पर पेश किया है। इसका कारण यह है कि सामाजिक विज्ञान का उद्भव ज्ञान जगत में सबसे अंत में हुआ है। सामाजिक विज्ञान के विषय-क्षेत्र के अंतर्गत कौन-कौन से विषय आते हैं? इन विषयों को परिसीमित करना बहुत कठिन कार्य है। सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में कौन-कौन से विषयों को शामिल किया जाये, यह विशेष रूप से चिंतन का विषय है। सामान्यतः सामाजिक विज्ञान के विषय-क्षेत्र के अंतर्गत वे सभी विषय आते हैं जिनका संबंध मनुष्य से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से होता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि इसमें वे विषय आते हैं जो मानवीय जीवन को किसी न किसी रूप से प्रभावित करते हैं। अगर सामाजिक विज्ञान के विषय-क्षेत्र का गहनता से अध्ययन किया जाये तो पता चलता है कि वर्तमान में प्रतिदिन नये-नये विषयों का उद्भव हो रहा है, उन विषयों में से जो मानव के क्रियाकलापों, गतिविधियों से संबंधित हैं वे सब भी इसके विषय-क्षेत्र के अंतर्गत ही आते हैं। इस तरह इसके विषय-क्षेत्र के अंतर्गत “समाहित होने वाले विषयों का उल्लेख करना एक अत्यंत जटिल कार्य है।

संक्षेप में, ज्ञान जगत के वे सभी विषय जिनका विकास तथा विस्तार मानव ने स्वयं अपनी गतिविधियों से किया है और इसमें प्रकृति का परोक्ष अथवा अपरोक्ष कोई हस्तक्षेप नहीं रहा है, सामाजिक विज्ञान क्षेत्र के विषय हैं।

सामाजिक विज्ञान के विषय के अंतर्गत आने वाले विषय भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद् के अनुसार निम्न हैं- 1. वाणिज्य, 2. जनसंख्याशास्त्र, 3. शिक्षा, 4. पत्रकारिता, 5. ग्रन्थालय विज्ञान, 6. भाषा विज्ञान, 7. प्रबंध अध्ययन, 8. लोक प्रशासन, 9. नगर एवं राष्ट्रीय नियोजन, 10. विज्ञान नीति, 11. सामाजिक एवं नियंत्रण औषध विज्ञान।

सामाजिक विज्ञान के विषय के क्षेत्र के विश्लेषण के आधार पर इसके अंतर्गत आने वाले विषयों को दो भागों में बाँटकर अध्ययन किया जा सकता है-

1. परंपरागत विषय

2. नवसृजित विषय

1. परंपरागत विषय – इन विषयों का अध्ययन मानव कई सदियों से करता आया है तथा अब इनका अध्ययन करना परंपरा हो गई है। अत: वे विषय जो मानव जीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं, उन विषयों को विज्ञानों ने परंपरागत विषयों का नाम दिया है।

इनमें निम्नलिखित विषय आते हैं- 1. इतिहास, 2. भूगोल, 3. राजनीति विज्ञान, 4. अर्थशास्त्र, 5. समाज विज्ञान

2. नवसृजित विषय- परंपरागत विषयों के अलावा जो विषय मानव जीवन को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं, उन नवसृजित विषयों को विज्ञानों ने निम्न नाम देकर वर्णन किया है-

1. मनोविज्ञान. 2. मानव विज्ञान, 3. अपराध शास्त्र, 4. दण्ड विज्ञान, 5. न्याय व्यवस्था, 6. विधिशास्त्र, 7. शिक्षा, 8. धर्मशास्त्र

इनके अतिरिक्त मानव भूगोल तथा सांस्कृतिक मनोविज्ञान भी इसमें शामिल किये जा सकते हैं।

सामाजिक विज्ञान की विषयवस्तु अन्य कई विषयों को विषयवस्तु को प्रभावित करती है तथा उनसे प्रभावित भी होती है। ऐसे प्रमुख विषय निम्न प्रकार हैं-

1. सामाजिक मानवशास्त्र एवं प्रजातिशास्त्र

2. सामाजिक मानवशास्त्र एवं पुरातत्वशास्त्र

3. सामाजिक मानवशास्त्र तथा समाजशास्त्र

4. सामाजिक मानवशास्त्र तथा मनोविज्ञान

5. सामाजिक मानवशास्त्र तथा इतिहास

भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद ने तो सामाजिक विज्ञान के शोध निमित्त निम्नलिखित विषयों को मान्यता दी है- मानव विज्ञान, वाणिज्य, सांख्यिकी, अर्थशास्त्र शिक्षा, भूगोल, विधि, प्रबंध, राजनीतिशास्त्र, मनोविज्ञान, प्रशासनिक व्यवस्था, समाजशास्त्र एवं ग्रामीण तथा शहरी योजना आदि। ज्ञान विज्ञान की अन्य शाखाओं की तरह सामाजिक विज्ञान भी दार्शनिकों के चिंतन तथा मनन का परिणाम है पर अब तो इस विषय का एक रूप म मान्यता प्रदान कर दी गई है। डॉ. एस. आर. रंगनाथन के अनसार सामाजिक विज्ञान के विषय-क्षेत्र के अंतर्गत निम्न विषय हैं- 1. शिक्षा, 2. भूगोल, 3. इतिहास, 4. राजनीति विज्ञान, 6. अर्थशास्त्र, 7. सामाजिक कार्य, 8. विधि।

उपर्यत सभी विषयों के अलावा और भी नये-नये विषय सामाजिक विज्ञान के विषय-क्षेत्र के अंतर्गत हो सकते हैं, जिनका कि वर्तमान में उद्भव हो रहा है।

निष्कर्ष-

संक्षेप में यह स्पष्ट है कि सामाजिक विज्ञानों का क्षेत्र बडा ही विस्तृत है, इनकी परिधि में मानव जाति का संपर्ण इतिहास अनादि काल से लेकर वर्तमान तक शामिल रहता है। इन विषयों के प्रस्तुतीकरण में अपने निवास स्थान से बहत दर बसने वाले लोगों का जीवन एव रीति-रिवाजों का उल्लेख उसकी सहजता के साथ किया जाता है, जैसा कि अपने निकट के पड़ोसियों की सांस्कृतिक धरोहर को पेश किया जाता है। विस्तृत मानव समाज का जीवन तथा उनके क्रिया-कलाप विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के लिए विषयों हेतु विषयवस्तु प्रदान करते है। इन विषयों के लिए विषयवस्तु का प्रस्तुतीकरण एकीकृत समन्वित रूप में अथवा विभिन्न विषयों के अलग-अलग विषयगत अनुशासन में प्रस्तुत करने की परंपरा का चलन है। तदनुसार इन विषयों का अध्ययन भविष्य में भी होता रहेगा।

कुछ विद्वानों ने एकीकृत स्वरूप का सामाजिक अध्ययन एवं विषयगत अनुशासन में सामाजिक विज्ञान मानकर अध्ययन प्रस्तुत किया है।

आधुनिक युग में सामाजिक विज्ञान की आवश्यकता :

आधुनिक तकनीकी के युग में मानव ने यातायात, उद्योग संचार माध्यमों एवं अन्य क्षेत्रों में तीव्रता से परिवर्तन करके प्राकृतिक-विज्ञानों में आश्चर्यजनक उन्नति की है। लेकिन समाज-विज्ञान में इस तरह की प्रगति नहीं हुई है। हालांकि मानव ने संसार में एक महान् भौतिक सभ्यता का निर्माण कर लिया है, तथापि वह वर्तमान औद्योगिक युग की जटिलताओं को सुलझाने में सर्वथा असमर्थ रहा है। उसने भौतिक सुविधाओं में विशेष वृद्धि करके जीवन के स्तर को उच्च तथा महान् बनाया है, उसने अणु शक्ति का आविष्कार करने में सफलता प्राप्त कर ली है, वह चंद्रलोक तक जा पहुँचा है एवं अब वहाँ पर बस्तियाँ बसाने के स्वप्न देख रहा है लेकिन उसने सामाजिक पद्धतियों को व्यवस्थित करने एवं अपने अधिकार में लाने में विशेष कठिनाई का अनुभव किया है। इतना ही नहीं, वरन् पारस्परिक युद्धों के द्वारा सर्वनाश की तरफ अग्रसर होता जा रहा है। यदि मानव-जगत अपनी विचार-शक्ति एवं विवेक का प्रयोग करके समाज-विज्ञानों में भी उतनी ही प्रगति करे जितनी कि उसने प्राकृतिक-विज्ञानों में की है तो वह निश्चय ही समाज-विज्ञानों की कमी को पूरा कर सकेगा; तथा पतन की तरफ अग्रसर होती मनुष्य जाति को नष्ट होने से बचा जा सकेगा। विद्वानों का मत है कि समाज-विज्ञान द्रारा विश्व में शांति स्थापित की जा सकती है। क्योंकि ये विज्ञान मानवीय संबंधों का करते हैं तथा स्पष्ट करते हैं कि सफल सामाजिक जीवन क्या है ? इनके द्वारा मानवकल्याण की ओर अग्रसर किया जा सकता है। इनके ज्ञान से मानव इन आविष्कारों का के कल्याण के लिए उपयोग करना सीख सकता है। इस कारण समाज-विज्ञान के लिए विश्व को अधिक आवश्यकता है। इस आवश्यकता के कारण शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर समाज-विज्ञान की सामग्री विभिन्न नामों से रखी गई है।

सामाजिक विज्ञान विषय के अध्यापन की आवश्यकता :

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से मस्तिष्क में जाकर सभी विषयों का ज्ञान एकीकृत और समन्वित हो जाता है ! अगर मस्तिष्क में जाने से पहले ही सभी सामाजिक विज्ञानों का मिलकर सामाजिक विज्ञान के रूप में ज्ञान ही समन्वित कर दिया जाए जिससे ज्ञान का एकीकरण करने। की प्रक्रिया स्ततः प्राप्त हो जाए। आधुनिक समय में विज्ञान एवं तकनीकी के विकास ने मानव समाज के स्वस्थ आधार व विशिष्टताओं में अत्यधिक परिवर्तन ला दिये हैं। वर्तमान में इतने हो रहे परिवर्तन से मानवीय सम्बन्धों में जटिलता आ गयी है। इस जटिलता को समझने और नवीन समाज में व्यवस्थित होने के लिये सामाजिक विषयों का पर्याप्त ज्ञान होना आवश्यक है।

आज जहाँ विश्व में वैज्ञानिक प्रगति व नित नये अविष्कार हो रहे हैं वहाँ दूसरी ओर भौतिकवाद, भ्रष्टाचार, भुखमरी, स्वार्थपरता, अहंवाद, जातिवाद, आतंकवाद, आदि दूषित प्रभावों, प्रवृत्तियों एवं बुराईयों ने पूरे विश्व में अन्धकार सा व्याप्त कर दिया है। अपने अस्तित्व का भय आज जन-जन में व्याप्त है। इन बुराइयों से समाज की रक्षा करने हेतु शिक्षा में ऐसे विषय की आवश्यकता हुयी जो वैज्ञानिक प्रगति के साथ सामाजिकता का सामंजस्य कर सके। अध्ययन के बाद विद्वानों ने यह पाया कि सामाजिक विज्ञान विषय के अध्यापन से मानव में सामाजिक कुशलता, सहयोग, वैज्ञानिक सजगता, अन्तर्राष्ट्रीयता तथा परिस्थितियों में समुचित सामंजस्य की योग्यता पैदा होती है। आधुनिक समाज में सामाजिक विज्ञान की शिक्षा का महत्व निम्नलिखित दृष्टिकोणों से है –

(1) प्रजातन्त्र एवं नागरिकता युग- वर्तमान में विश्व के अधिकांश देश प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणाली अपना चुके हैं। प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणाली की सफलता सुनागरिकता पर निर्भर हैं। अत: कह सकते हैं कि प्रजातंत्र की सफलता के लिये यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति को सुनागरिक बनने की शिक्षा दी जाए। इस शिक्षा को देने का कार्य सामाजिक विज्ञान विषय के अध्यापन द्वारा सफलतापूर्वक किया जा सकता है।

(2) विद्यालयों का गत्यात्मक दृष्टिकोण- वर्तमान में शिक्षा के गत्यात्मक स्वभाव के कारण सभी शिक्षण संस्थानों का दृष्टिकोण भी गत्यात्मक होता जा रहा है क्योंकि शिक्षा के क्षेत्र, रूप एवं कार्यपरिवर्तन के साथ ही साथ विद्यालय के क्षेत्र एवं अर्थ बदल जाते हैं। शिक्षा में यह गत्यात्मक दृष्टिकोण सामाजिक परिवतेन के फलस्वरूप हआ है। शिक्षा सामाजीकरण की प्रक्रिया में पूर्ण सहयोग देती है। आज सामाजिक प्रक्रिया होने के नाते, मानव के लिये यह आवश्यक है कि शिक्षा के द्वारा विभिन्न सामाजिक संस्थानों में से, विशेष रूप से विद्यालय के माध्यम से छात्रों को इस योग्य बना दें जिससे वे जटिल समान में सरल व सुखद जीवन व्यतीत कर सकें।

(3) सामाजिक परिवर्तन के प्रभाव- आज समाज में नित नये परिवर्तन हो रहे हैं। कोई भी क्षेत्र इस परिवर्तन से अछूता नहीं है चाहे वह क्षेत्र पारिवारिक हो, सामाजिक हो, आर्थिक हो या राजनैतिक। आज का समाज वह समाज नहीं है जो 50 वर्ष पहले था। लोगों का खाना-पीना, रहन-सहन, वेश-भूषा, ही नहीं बदल रहे हैं बल्कि आजकल लोगों की सोच, विचार, आदर्श तथा चिन्तन सब कुछ बदल रहा है। यह परिवर्तन मानव के लिये निजी क्षेत्र में तो लाभकारी है तथा किसी क्षेत्र मे कष्टदायी है। नगरीकरण बढ़ता जा रहा है। उद्योग एवं व्यापार तकनीकी साधन आदि बढ़ रहे हैं। संयुक्त परिवार का विघटन हो रहा है। नामकीय परिवार होने से कुछ लाभ तो कुछ हानियाँ भी हैं। इसी प्रकार परिवर्तन के अनेक पहलू हैं। अतः छात्रों में हो रहे सामाजिक परिवर्तन के हर पहलू का ज्ञान सामाजिक विज्ञान के माध्यम से कराया जाए जिससे वें स्वयं अपना सही मार्ग चुन सकें।

(4) व्यवहारिक दृष्टिकोण से सामाजिक विज्ञान की आवश्यकता- प्रत्येक मानव की आवश्यकता एक दूसरे से सहयोग से पूर्ण होती है। इसी कारण इसकी प्रत्येक क्रिया में मानव सम्बन्धों की झलक पायी जाती है। मानव सम्बन्धों का अध्ययन, सामाजिक विज्ञान के अन्तर्गत आता है। अर्थात् सामाजिक विज्ञान में हम मानव की सम्पूर्ण क्रियाओं का अध्ययन करते है। सामाजिक विज्ञान मानव के व्यवहारिक जीवन में आने वाली अनेकों आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक समस्याओं से अवगत कराता है तथा मानव को इन समस्यओं के समाधान करने योग्य बनाता है।

(5) ज्ञान की एक इकाई के रूप में अवधारणा- अब से कुछ समय पूर्व तक सभी सामाजिक विषयों को पृथक-पृथक रूप से पढाया जाता था जैसे – इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, नागरिकशास्त्र, समाज शास्त्र आदि। तब ज्ञान को एक इकाई के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता था, फलस्वरूप इन विषयों के पृथक अध्यापन से इनकी अपर्याप्तता एवं असफलता शीघ्र ज्ञात हो गयी। जिसके परिणामस्वरूप ज्ञान को एक इकाई रच में मानकर सामाजिक विज्ञान विषया का पृथक ज्ञान एकीकृत करने की आवश्यकता पर बल दिया जाने लगा। वर्तमान में मानव के मानवीय गणों के समचित विकास तथा शिक्षा के नवीन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये सामाजिक विज्ञान की ज्ञान की एक इकाई के रच में प्रबल आवश्यकता है।

(6) संस्कृति के आधारभूत तत्वों के ज्ञान हेतु सामाजिक विज्ञान की आवश्यकता – प्रत्येक देश व समाज की अपनी-अपनी संस्कृति होती है जिसे वह सुरक्षित रखना चाहते हैं तथा पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण करना चाहते हैं। संस्कृति का हस्तांतरण शिक्षा के माध्यम से यह कार्य उचित व सुचारू रूप से होता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अतः समाज में रहते हुये अपनी संस्कृति को बनाये रखने के लिये सामाजिक विज्ञान के अध्यापन की अवधारणा होती है।

(7) मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से सामाजिक विज्ञान की आवश्यकता- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है परन्तु वह एक ऐसा जीव है जिसके सम्पूर्ण व्यवहार के आधार पर उसका व्यक्तित्व बनता है। यही व्यवहार उसे अपने तथा समाज के साथ सामंजस्य होने में मदद करता है। उसके व्यवहार का अध्ययन अर्थात मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एक ऐसे विषय की आवश्यकता है जो समाज में रहते हुये उसकी मानसिक क्रियाओं की बचत करे तथा उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को निखारने का अवसर प्रदान करे।

(8) नैतिक दृष्टिकोण से सामाजिक विज्ञान की आवश्यकता- व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास में उसका नैतिक विकास भी बेहद आवश्यक है तभी वह समाज में रहकर सामाजिक नियमों मान्यताओं एवं सामाजिक मूल्यों के आधार पर अपने व्यवहार को सन्तुलित रखता है। हम कह सकते हैं कि नैतिक विकास के लिये भी सामाजिक विज्ञान की बेहद आवश्यकता है। सामाजिक विज्ञान के विषय के माध्यम से, अनेक जीवन परिचय के माध्यम से, उनक नेतिक विचार आदर्श कार्य एवं व्यवहारों से व्यक्ति परिचित होता है। अतः जीवन को आदर्शमय बनाने हेतु सामाजिक विज्ञान का विषय अत्यधिक सहायता पहुंचाता है।

(9) अन्तर्राष्ट्रीय सदभावना का विकास- एक व्यक्ति में अपने विकास के साथ या समाज में मिलजुलकर रहने की भावना का विकास तो सामाजिक विज्ञान करता ही है साथ ही सम्पूर्ण विश्व में सभी नागरिकों में भ्रातृत्व के गुणों का विकास भी इसके अध्ययन का एक गि है, जिससे विश्व में आपसी सदभावना तथा पूर्ण शक्ति बनी रह जो कि सभी देशों की प्रालि बेहद आवश्यक है। सामाजिक अध्ययन अपने व्यापक क्षेत्र के कारण इन कार्यों को वटी पूर्वक सम्पन्न कर सकता है।

भारत में सामाजिक विज्ञान की आवश्यकता :

भारत में माध्यमिक शिक्षा आयोग को इस विषय के प्रतिपादन का श्रेय है। चूँकि भारत देश एक प्रजातान्त्रिक देश है, जिसमें विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न धर्मों व जातियों के लोग रहते हैं। उनमें आपसी सदभावना बनी रहे तथा यहां के युवा छात्रों में वर्तमान समय की सामाजिक बुराइयों को देखने व समझने की क्षमता पैदा हो। व्यक्ति तथा समाज के आपसी सम्बन्धों की जटिलता को समझने के लिये व्यवस्थित रूप से शिक्षा प्रदान करने की आवश्यकता ने शिक्षा शास्त्रियों को सामाजिक शिक्षा को व्यवस्थित रूप में सामाजिक विज्ञान के रूप में प्रस्तुत करने को प्रेरित किया।

भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त से प्रत्येक क्षेत्र में अत्यधिक परिवर्तन आये है। चाहे वह क्षेत्र आर्थिक हो, सामाजिक हो, नैतिक हो या धार्मिक। वैज्ञानिक प्रगति व औद्योगिक उन्नति ने भारत को समस्त विश्व के साथ चलने की राह सुझाई। आधुनिकीकरण ने मानवीय समाज के आकार प्रकार व संगठन में बहुत परिवर्तन किया। यह परिवर्तन कछ क्षेत्रों में तो अच्छा रहा लेकिन उसका दूसरा पहल भी सामने आया जिससे सामाजिक व नैतिक मल्या का आदर्शा व संस्कृति का अवमूल्यन हो रहा था जैसे प्रारम्भिक किशोरावस्था में बालक अपने ऊपर नियन्त्रण की अवहेलना करता है। इस आय के बालकों को हर बात में बड़ों का मार्गदर्शन करना अच्छा नहीं लगता, उनका अहं इस समय स्वतंत्र चिन्तन और व्यवहार को प्रेरित करता है। अत: ऐसे में सामाजिक विज्ञान विषय का अध्यापन कराना उचित ही है जिसमें उनके संवेगों की तुष्टि हो सके तथा संवेग धनात्मक राह पर अग्रसरित हो। इस प्रकार अनेक परिवर्तनों ने भारतवर्ष में सामाजिक विज्ञान की आवश्यकता को प्रकट किया-

1. लोकतंत्रात्मक शासन

2. कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य

3. औद्योगिक प्रगति का प्रभाव

4. सामाजिक राज्य की स्थापना का लक्ष्य

5. विभिन्न अविष्कारों का प्रभाव

6. ग्राम पंचायतों की व्यवस्था

7. सर्वोदय

8. वर्तमान कालीन समस्याएँ – जाति प्रथा, धर्मों की अनेकता, बेरोजगारी, जनसंख्या वद्धि की समस्या खाद्यान्नों की कमी. रिश्वतखोरी और महंगाई सुरक्षा की समस्या आदि।

इन परिवर्तनों के अतिरिक्त भी अन्य कई कारण हैं जिससे हमारे विद्यालयों में सामाजिक विज्ञान की आवश्यकता हुयी जो कि निम्नलिखित हैं-

1. शिक्षा का पुर्नसंगठन- भारतवर्ष के प्राय: सभी राज्यों में शिक्षा की 10 + 2 + 3 प्रणाली प्रारम्भ हो रही है। शिक्षा के व्यवसायीकरण पर अत्यधिक जोर दिया जा रहा है। जिससे विद्यालयों के पाठ्यक्रम, दायित्व व लक्ष्य सभी बदल रहे हैं। इस परिवर्तित शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक विज्ञान विषय का बड़ा महत्व है।

(2) सामाजिक विज्ञानों की अपार सामग्री- सभी विषयों को सम्पूर्णता के साथ पढ़ाने के लिये बहुत अधिक समय चाहिये। सम्भवतः जीवन भर अध्ययन करते रहने पर भी सभी सामाजिक विज्ञानों की सामग्री समाप्त न हो पाये। प्रत्येक विषय की अत्यधिक सामग्री होने के कारण भारत में विद्यालयी स्तर पर छोट बालकों के लिये व्यवहारिक ज्ञान देने हेतु सामाजिक विज्ञान विषय को महत्व दिया जा रहा है।

(3) भारतीय समाज में परिवर्तन- भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त अनेकों परिवर्तन निरन्तर हो रहे हैं। आधुनिकीकरण होने के कारण निरन्तर नये-नये उद्योग फल-फूल रहे हैं। नगरीकरण हो रहा है। संयुक्त परिवार की प्रथा प्राय: लुप्त-सी हो रही है। परिवार में बालक में पीढी दर पीढ़ी हस्तातरित होने वाली संस्कृति व मूल्यों का निरन्तर अवमूल्यन हो रहा है। परिवार में वद्ध सदस्यों की देख-रेख व सेवा मुश्रुषा से कई युवक आज बचना चाहते हैं तथा उन्हें समाज में बोझ समझने लगे है। शासन के विकेन्द्रीकरण ने चुनावों की बीमारी ग्रामीण क्षेत्रों तक फैला दी है। इससे शान्तिप्रिय गाँव में भी अब राजनीति तथा गटबन्दी पैदा होने लगा है। ग्रामीण तथा नगरीय दोनों स्थलों पर मानव मल्य बदल रहे हैं। सामाजिक अध्ययन के विषय का प्रारम्भ करने का एक उद्देश्य यह भी है कि यहाँ बालक सामाजिक अवस्थाओं, समस्याओं ,उनके कारणों आदि को समझे तथा उन समस्याओं से सामना करते हये उनके निवारण के उपाय भी जाने।

(4) सामाजिक कुरीतियों के निवारण हेतु – माना कि हमारे देश को स्वतंत्रु हुये आध दशक से ज्यादा समय हो गया है व इस आयु में भारत ने शिक्षा व साहित्य, वज्ञानिक व औद्योगिक प्रगति व उन्नति की हैं, परन्तु फिर भी यहाँ अनेकों कुरीतियों का अम्बार लगा हुआ है जैसे – अनेक प्रकार के आडम्बर दहेज प्रथा बाल विवाह, कई जगह पर सती प्रथा, मृत्युभोज, बलि चढ़ाना, अनेक अन्धविश्वास, मूर्तिपूजा, पोंगा पांडित्य, तथा धार्मिक संकीर्णताए आदि ने भारतीय समाज को आज भी ग्रसित किया हआ है जिससे समाज की उन्नति पर ग्रहण लगा हुआ है। इनके निवारण की नितान्त आवश्यकता है। यह कार्य सामाजिक विज्ञान द्वारा बखूबी किया जा सकता है।

(5) सभी के लिये अनिवार्य शिक्षा – भारत में सभी के लिये शिक्षा को अनिवार्य कर दिया गया है कि सभी बालकों को प्राथमिक स्तर पर सामाजिक ज्ञान का भी शिक्षण प्रदान किया जाये। प्राथमिक स्तर तथा माध्यमिक स्तर तक ही यहां कई बालक शिक्षा ग्रहण करके अपनी शिक्षा को समाप्त कर देते हैं जिससे उन्हें सामाजिक विज्ञानों को पढ़ने का अवसर ही नहीं मिल पाता था। अत: सामाजिक विज्ञान स्कूली स्तर पर ही अनिवार्य विषय के रूप में प्रारम्भ करने से अल्प शिक्षा समाप्ति से उत्पन्न होने वाली कमी को भी पूरा करने में समर्थ होगा।

(6) प्रजातान्त्रिक गुणों के विकास के लिये – भारत में प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था होने से प्रत्येक व्यक्ति में व्यवहारिक रूप से प्रजातंत्रीय गुणों के विकास के लिये तथा प्रजातंत्रात्मक शासन की सफलता के लिये सामाजिक विज्ञान विषय- आरम्भ किया गया। जिससे यहाँ के जनजन में अपने कर्तव्यों एवं अधिकारों का ज्ञान हो जो उनमें सहयोग, सहिष्णुता, सत्य, अहिंसा, त्याग आदि मूल्यों को प्रतिस्थापित करें।

(7) अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का विकास- प्राचीन काल से ही भारत इस तथ्य पर सहमत रहा है कि सभी देशवासी आपस में मिलजुलकर रहें तथा अन्य सभी देशों में भी भाईचारे के गुण पैदा हो तथा अन्तर्राष्ट्रीय एकता बनी रहे। छात्रों को अपने देश की जानकारी होना, अपने देश के प्रति पूर्ण सम्मान और देशभक्ति की भावना ही पर्याप्त नहीं है अपितु राष्ट्रीय एकता के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय एकता को भी बनाये रखने का प्रयास किया जाता है क्योंकि भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ विभिन्न जाति, अनेक धर्म व भाषाओं आदि को मानने वाले लोग रहते हैं। उन्हें इन विभिन्नता से ऊपर उठकर एक मानव होने का ज्ञान कराना प्रमुख कर्तव्य है जो कि सामाजिक विज्ञान के माध्यम से ही कुशलता पूर्वक सम्भव हो सकता है।
सामाजिक-अध्ययन का अर्थ तथा परिभाषा :

‘सामाजिक-अध्ययन’ का शाब्दिक अर्थ है- “मानवीय परिप्रेक्ष्य में समाज का अध्ययन’। यह एक ऐसा विषय है जिसमें मानवीय संबंधों की विभिन्न दृष्टिकोणों से चर्चा होती है। प्राचीन काल में समाज की संरचना सरल थी तथा उसकी समस्याएं भी आसान हआ करती थी। व्यक्ति को सामाजिक समायोजन में विशेष कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता था लेकिन समय की गति के साथ-साथ समाज की समस्याएं भी जटिल होती गयीं। विज्ञान तथा टेक्नालोजी के विकास ने जहाँ मानव-समाज को सुख-सुविधाएं प्रदान की है वहाँ उसके लिए कई जटिल समस्याएं भी पैदा कर दी हैं। इन समस्याओं को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझने तथा इनके उचित समाधान हेतु सहयोग देने का प्रशिक्षण व्यक्ति को बचपन से ही प्राप्त होना चाहिए। तभी वह समाज का उपयोगी सदस्य सिद्ध हो सकता है। यही कारण है कि स्कूली-विषयों में विषयों में ‘सामाजिक अध्ययन’ को शामिल किया है। ‘सामाजिक-अध्ययन’ की अवधारणा को स्पष्ट करने हेतु कई विद्वानों ने अपने विचार प्रकट किये हैं जिनका विवरण निम्न तरह है-

श्री फोरैस्टर के विचारानुसार, “सामाजिक अध्ययन, जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, समाज का अध्ययन है तथा इसका प्रमुख उद्देश्य विद्यार्थियों को उस संसार के समझने में मदद प्रदान करना है जिसमें उन्हें रहना है ताकि वे उसके उत्तरदायी सदस्य बन सकें। इसका ध्येय विवेचनात्मक चिंतन एवं सामाजिक परिवर्तन की तत्परता को प्रोत्साहित करना, सामान्य कल्याण के लिए कार्य करने की आदत को विकसित करना, दूसरी संस्कृतियों के प्रति प्रशंसात्मक दृष्टिकोण रखना एवं यह अनुभव कराना है कि सभी मानव और राष्ट्र एक दूसरे पर आश्रित हैं।”

पीटर एच. मोरिला के अनुसार, “सामाजिक अध्ययन को प्रयोगात्मक क्षेत्र के साथ संबंधित करना ज्यादा उचित होगा क्योंकि इसमें वैज्ञानिक ज्ञान को उन नैतिक, दार्शनिक, धार्मिक एवं सामाजिक विचारों के साथ समन्वित किया जाता है जो निर्णय लेने की प्रक्रिया में नागरिकों के सामने आते हैं।”

जॉन वी. मिकाईलिस के शब्दों में, “सामाजिक अध्ययन मनुष्य एवं उसकी अपने सामाजिक एवं भौतिक वातावरण से अंतः क्रिया के साथ संबंधित है, यह मानवीय संबंधों का अध्ययन करता है. सामाजिक-अध्ययन का केन्द्रीय कार्य शिक्षा के केन्द्रीय लक्ष्य के अनुरूप है- अर्थात् लोकतंत्रात्मक नागरिकता का विकास।”

जोरोलिमिक के अनुसार, “सामाजिक अध्ययन मानवीय संबंधों का अध्ययन है।“

वेस्ले के अनुसार, “सामाजिक अध्ययन उस विषय सामग्री की ओर इंगित करता है जिनके तथ्य एवं उद्देश्य प्रमुख रूप से सामाजिक होते हैं।”


सामाजिक अध्ययन की नवीन धारणा :

सामाजिक अध्ययन की नवीन धारणा को निम्न तथ्यों के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है-

1. आधुनिक सभ्यता को स्पष्ट करने वाला विषय- सामाजिक अध्ययन ज्ञान का वह क्षेत्र है जिसके द्वारा आधुनिक सभ्यता को स्पष्ट किया जाता है। इसकी पुष्टि में हम एम.पी. मुफात के शब्दों का उल्लेख कर सकते हैं, “सामाजिक अध्ययन ज्ञान का वह क्षेत्र है जो युवकों को आधुनिक सभ्यता के विकास को समझने में मदद देता है। ऐसा करने हेतु वह अपनी विषय-वस्तु को समाज विज्ञानों एवं समसामयिक जीवन से प्राप्त करता है !”

2. शिक्षा का आधुनिक दृष्टिकोण- सामाजिक अध्ययन कुछ भी नहीं है बल्कि शिक्षा के प्रति अपनाये जाने वाले आधुनिक दृष्टिकोण का एक अंग है। हम अपने इस कथन की पुष्टि फोरेस्टर के शब्दों में कर सकते हैं, “सामाजिक अध्ययन शिक्षा के आधुनिक दृष्टिकोण का एक अंश है जिसका ध्येय तथ्यात्मक सूचनाओं को संग्रहित या एकत्रित करने की अपेक्षा मानदंडों, वृत्तियों, आदर्शों एवं रुचियों का निर्माण करना है।”

3. शिक्षण हेतु नवीन आधार प्रदान करने वाला विषय- सामाजिक अध्ययन अपनी विषय-वस्तु से आज के जटिल विश्व की सरल तथा स्पष्ट बनाने हेतु शिक्षण का नवीन आधार प्रदान करता है।

इसकी पुष्टि करते हुए बाइनिंग तथा बाइनिंग ने लिखा है, “सामाजिक अध्ययन की विषय-वस्तु द्वारा एक ऐसा आधार प्रस्तुत किया जाता है जिसके द्वारा हम अपने छात्रों के समक्ष आज के विश्व को स्पष्ट तथा आसान बना सकें। इसके द्वारा छात्रों को अनिवार्य आदतों एवं कुशलताओं में प्रशिक्षित और उनमें ऐसी वृत्तियों तथा आदर्शों को विकसित किया जाता है जो बालक एवं बालिकाओं को लोकतंत्रीय समाज में प्रभावकारी सदस्यो के रूप में उचित स्थान ग्रहण करने योग्य बनायेंगे।”

4. क्षेत्रीय विषय के रूप में – सामाजिक अध्ययन परंपरागत विषय नहीं है बल्कि ज्ञान का एक क्षेत्र है।

इस संबंध में एम.पी. मुफात ने लिखा है, “सामाजिक अध्ययन वह क्षेत्र है जो युवकों को उस ज्ञान, सूचना एवं क्रियात्मक अनुभवों के द्वारा मदद प्रदान करता है, जा मूलभूत मूल्यों, वांछित आदतों, स्वीकृत वृत्तियों एवं इन महत्वपूर्ण कुशलताओं के निमाण हेतु जरूरी है जिनको प्रभावशाली नागरिकता का आधार माना जाता है।

5. सामाजिक प्राणी के रूप में मानव का अध्ययन- सामाजिक अध्ययन मानव का एक सामाजिक प्राणी के रूप में अध्ययन करता है। इसकी विषय-सामग्री मानव-समाज के संगठन तथा विकास से संबंधित है। हम अपने कथन की पुष्टि ‘राष्ट्रीय शैक्षिक समुदाय आयोग’ के शब्दों में कर सकते हैं, “सामाजिक अध्ययन वह विषय-वस्तु है जो मानव-समाज के संगठन तथा विकास से संबंधित है एवं मनुष्य के सामाजिक समूहों के सदस्य के रूप में अध्ययन करती है।”

6. सामाजिक एवं भौतिक वातावरण का अध्ययन- सामाजिक अध्ययन वह अध्ययन है जो सामाजिक एवं भौतिक वातावरण की विवेचना करता है।

इस संबंध में जॉन यू. माइकेलिस ने लिखा है, “सामाजिक अध्ययन का कार्यक्रम मनुष्य एवं अतीत, वर्तमान और विकसित होने वाले भविष्य के सामाजिक तथा भौतिक पर्यावरणों के प्रति उनके द्वारा की गई पारस्परिक क्रिया का अध्ययन है।”

7. मानव जीवन का अध्ययन – सामाजिक अध्ययन ज्ञान के उस क्षेत्र का नाम है जिसमें मनुष्य के जीवन का अध्ययन किया जाता है। इस संबंध में जेम्स हेमिंग ने लिखा है. “सामाजिक अध्ययन के अंतर्गत हम जिस तथ्य का अध्ययन करते हैं, वह मनुष्य का जीवन है, लेकिन इसका अध्ययन निश्चित स्थान एवं समय के संदर्भ में किया जाता है_ सामाजिक अध्ययन में प्रमुख रूप से इन प्रसंगों का अध्ययन किया जाता है- मनुष्य ने अतीत एवं वर्तमान में अपने वातावरण से किस तरह संघर्ष किया, उसने अपनी शक्तियों का उपयोग अथवा दुरुपयोग कैसे किया एवं उसने अपने संसाधनों,विकास और सभ्यता की आवश्यक एकता को किस तरह प्रभावित किया।”

8. मानवीय संबंधों का अध्ययन- सामाजिक अध्ययन उस विषय का नाम है जिसमें मानवीय संबंधों का विवेचन किया जाता है। मानवीय संबंधों से तात्पर्य उन संबंधों से है जो मनुष्य एवं समुदायों संस्थाओं राज्यों आदि के मध्य स्थित रहते हैं। मनुष्य के व्यक्तिगत तथा पारस्परिक और सामहिक संबंध भी सामाजिक अध्ययन के अंतर्गत आते हैं। इस तरह सामाजिक अध्ययन ज्ञान के उस क्षेत्र का नाम है, जिसमें मानवीय संबंधों तथा उनके स्पष्टीकरण देत विभिन पर्यावरणों का अध्ययन किया जाता है।

इस संबंध में ई.बी. वेस्ले ने लिखा है, “सामाजिक अध्ययन नामक पद उन विद्यालय विषयों की तरफ संकेत देता है जो मानवीय संबंधों का विवेचन करते है | _ यह अध्ययन क्षेत्र विषयो के एक संघ एवं पाठ्यक्रम के एक खंड का निर्माण करता खंड वह है जो प्रत्यक्ष रूप से मानवीय संबंधों से संबंधित है।”

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक अध्ययन एक विस्तृत, व्यापक तथा विशिष्ट विषय है। इस विषय की कुछ विशेषताएं हैं जिनका विवरण निम्न तरह है –

1. सामाजिक अध्ययन मनुष्यों एवं उनके समुदायों का अध्ययन है।

2. यह वह अध्ययन है जो छात्र-छात्राओं को उस वातावरण को समझने एवं उसकी व्याख्या करने में मदद प्रदान करना है जिसमें वे पैदा और विकसित हुए है है।

3. यह मानवीय संबंधों पर बल देता है।

4. यह इस तथ्य को समझने में मदद प्रदान करता है कि आज का मानव संपूर्ण विश्व में आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से अन्योन्याश्रित है।

5. यह अध्ययन इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि मानव स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर एक साथ मिलकर जीवन-यापन और कार्य करता है।

6. यह सामाजिक संस्थाओं की उत्पत्ति तथा विकास की समझदारी है।

7. यह मनुष्य एवं उसके भौतिक पर्यावरण के मध्य होने वाली अंतक्रिया का अध्ययन करता है। साथ ही इसके क्षेत्र में सामाजिक एवं अन्य तरह के पर्यावरणों का अध्ययन भी निहित है।

8. यह आधुनिक विश्व तथा सभ्यता को आसान और स्पष्ट बनाने में मदद प्रदान करता है। साथ ही यह छात्रों को समसामयिक समस्याओं को समझने में मदद देता है।

9. सामाजिक अध्ययन में सिर्फ विषयों का योग ही निहित नहीं है बल्कि यह एक एकीकृत उपागम है।

10. सामाजिक अध्ययन सामयिक जीवन एवं उसकी परिस्थितियों के अध्ययन पर बल देता है।

11. यह वह अध्ययन है जिसमें अतीत एवं वर्तमान में मानवता को प्रभावित करने वाले मामलों, समस्याओं और ढाँचों का अध्ययन किया जाता है।

12. सामाजिक अध्ययन समग्र ज्ञान के एक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है।

13. सामाजिक अध्ययन शिक्षण हेतु एक नवीन आधार तथा दृष्टिकोण प्रदान करता है।

14. सामाजिक अध्ययन विषयों के विभाजन की कठोरता को खत्म करके ज्ञान की सापेक्षता पर बल देता है।

15. सामाजिक अध्ययन उत्तम नागरिकता के विकास में मदद प्रदान करके लोकतंत्र को सफल तथा सुरक्षित बनाने में सहायक है।

सामाजिक अध्ययन की प्रकृति :

सामाजिक अध्ययन एक विशाल पर विशिष्ट शब्द है जिसकी प्रकृति विशाल है, यही कारण है कि सामाजिक अध्ययन को स्कूल पाठ्यक्रम में काफी महत्वपूर्ण स्थान दिया जा रहा है। यह सामान्य शिक्षा का अभिन्न अंग है। पर अफसोस अभी तक सामाजिक अध्ययन विषय को शिक्षा का अभिन्न अंग बने करीब तीस साल हो चुके हैं पर अभी तक अध्यापक इसे विभिन्न विषयों का एकीकरण मानते हैं। अध्यापक इन्हें पढ़ाते समय इतिहास एवं भूगोल को भिन्न-भिन्न विषय के रूप में पढ़ाते हैं। उन्हें कभी भी सामाजिक एवं भौगोलिक परिस्थितियों से जोड़कर नहीं पढ़ाते। इसी तरह एक धारणा यह भी है कि सामाजिक अध्ययन का अर्थ सामाजिक समस्याओं एवं सामयिक घटनाओं का अध्ययन है जो कि सत्य नहीं।

सामाजिक अध्ययन विभिन्न विषयों का मिश्रण नहीं वरन् एक अलग विषय है जो मानवीय संबंधों एवं वातावरण के सामंजस्य की जानकारी देता है। यह लोकतांत्रिक नागरिकों का निर्माण करता है, देश-प्रेम की भावना को विकसित करता है,राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना को विकसित करता है। यह एक स्वतंत्र विषय है।

सामाजिक अध्ययन शब्द दो शब्दों के मेल सामाजिक + अध्ययन, से बना है। इसमें सभी सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। इससे अभिप्राय समाज का, समाज के लिए, समाज द्वारा अध्ययन अर्थात् समाज संबंधी सभी संस्थाओं तथा संगठनों का अध्ययन, जिससे समाज की प्रगति होती है। अध्ययन शब्द से अभिप्राय है प्राप्त ज्ञान को व्यावहारिक रूप से जीवन में प्रयुक्त करना। इस तरह हम कह सकते हैं कि सामाजिक अध्ययन मानव के सभी दृष्टिकोणों से संपूर्ण अध्ययन पेश करता है। इसे मानव सभ्यता के विकास की श्रृंखला समझा जाता है। इसका स्वरूप जटिल एवं विशाल है। इसमें सभी सामाजिक संस्थाओं तथा संगठनों के विकास का अध्ययन किया जाता है। यह मानव जीवन के भूतकालीन, वर्तमान एवं भविष्य का अध्ययन करवाता है। इसमें सभी विषय राजनीति-शास्त्र, समाज-शास्त्र, अर्थशास्त्र, इतिहास, भूगोल के आधारभूत सिद्धांतों का अध्ययन किया जाता है।

इस तरह यह एक अंत: अनुशासित विषय है, जिसकी सामग्री मानव ज्ञान और अनुभवों पर आधारित है।
सामाजिक अध्ययन का क्षेत्र :

सामाजिक अध्ययन का क्षेत्र बहुत व्यापक है। इसमें इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र आदि सामाजिक विज्ञानों से विषय-वस्तु ली जाती है। साथ ही इसमें आधुनिक समस्याओं, तत्कालीन घटनाओं एवं समसामयिक घटनाओं को भी स्थान प्रदान किया जाता है। इस तरह सामाजिक अध्ययन मानव-जीवन के किसी विशेष पक्ष का विवेचन न करके उसकी संपूर्णता का वर्णन करता है।

इसमें मानव के नागरिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक आदि सभी पक्षों का विवेचन किया जाता है। साथ ही सामाजिक अध्ययन मनुष्य के सामाजिक तथा भौतिक वातावरणों का विवेचन करके उनकी अन्योन्याश्रितता को भी स्पष्ट करता है। वस्तुत: सामाजिक अध्ययन, अध्ययन का बढ़ता हुआ क्षेत्र है। इस क्षेत्र में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही है। निकलसन तथा राइट के अनुसार, “वस्तुतः इसका क्षेत्र अत्यंत व्यापक है तथा संपूर्ण विश्व में मानव का वर्तमान सामाजिक जीवन ही इसका मूल है।”

आधुनिक विचारधारा के अनुसार अब सामाजिक अध्ययन के अंतर्गत न सिर्फ सामाजिक विज्ञानों की सरलीकृत तथा पुनः संगठित सामग्री को माना जाता है बल्कि अंतर्राष्ट्रीय संबंध, अंतर-सांस्कृतिक संबंध, नागरिकता की शिक्षा, विवादास्पद मामले आदि विषयों को भी स्थान प्रदान किया जाता है।

इसके क्षेत्र के अंतर्गत निम्न तथ्यों का अध्ययन किया जाता है-

1. समाज-संबंधी अध्ययन।

2. मानवीय संबंधों का अध्ययन।

3. नागरिकता की शिक्षा।

4. तत्कालीन घटनाएं

5. आधुनिक समस्याओं एवं विवादास्पद प्रश्नों का अध्ययन।

6. अंतर्राष्ट्रीय तथा अंतर सांस्कृतिक संबंध।

7. सामाजिक तथा भौतिक पर्यावरणों की अन्योन्याश्रितता संबंधी अध्ययन।

8. प्राकृतिक विज्ञान एवं ललित-कलाओं का व्यावहारिक अध्ययन।

9. उचित दृष्टिकोण का विकास।

10. अन्य क्रियाओं द्वारा व्यावहारिक जानकारी।

भारत में सामाजिक अध्ययन की आवश्यकता :

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय समाज में कई क्रान्तिकारी परिवर्तन हो चुके हैं, जिन्होंने सामाजिक अध्ययन की शिक्षा की आवश्यकता प्रदर्शित की है। यहाँ स्वतः ही यह प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि वे परिवर्तन कौन-कौन से हैं, जिन्होंने भारतीय समाज की काया को पलट दिया है।

इसके उत्तर में निम्न परिवर्तनों को पेश किया जा सकता है-

1. प्रजातान्त्रिक शासन की स्थापना- सदियों की परतन्त्रता के बाद देश को स्वतन्त्रता मिली। 15 अगस्त पुण्य राष्ट्र-पर्व बन गया, साथ ही नयी-नयी समस्याओं और उत्तरदायित्वों को भी साथ लाया। इस दिन हमने सोचा मानो हम युगों की प्रगाढ़ निद्रा से जागकर अब कर्तव्य-रत होने जा रहे हैं। अधिकार मिलेः सभी नागरिक अधिकार-मूल अधिकार, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक अधिकार एवं हमने स्वतंत्रता, समानता और भाई-चारे का पाठ पढ़ा। इसके बाद दूसरा कदम प्रजातन्त्र की तरफ बढ़ाया एवं 26 जनवरी, 1950 को अपने राष्ट्र को एक प्रजातन्त्रात्मक गणतंत्र घोषित किया। इस कदम ने भारतीयों के कंधों पर बहुत बड़ा भार डाला। इस कदम को सार्थक तथा प्रेरणादायक बनाने हेतु यह जरूरी हो गया कि देश के लोग कुशल नागरिक हों जो सफलतापूर्वक अपने प्रजातन्त्रात्मक शासन एवं उसके द्वारा प्राप्त अधिकारों तथा कर्तव्यों का पूर्ण रूप से निर्वाह कर सकें। इस कदम की सफलता हेतु यह जरूरी हो गया कि छात्रों को ऐसी शिक्षा प्रदान की जाये जिससे वे योग्य नागरिक बनकर अपने वर्तमान प्रजातन्त्रात्मक समाज में व्यवस्थित हो सकें। इस आवश्यकता की पर्ति सामाजिक अध्ययन की आवश्यकता के द्वारा पूर्ण की जा सकती है। सामाजिक अध्ययन की पाठ्य-सामग्री द्वारा एक ऐसा आधार प्रदान किया जाता है जिसके द्वारा हम अपने छात्रों के सामने आधुनिक विश्व को स्पष्ट एवं सरल बना सकते हैं। उसके द्वारा उनको अनिवार्य आदतों तथा कुशलताओं में प्रशिक्षित एवं उसमें ऐसी अभिरुचियों तथा आदतों को विकसित किया जा सकता है, जिनकी प्राप्ति से बालक तथा बालिकायें प्रजातन्त्रीय समाज में अपना स्थान ग्रहण करने में समर्थ हो सकें।

2. औद्योगिक प्रगति तथा वैज्ञानिक आविष्कारों का प्रभाव- भारत एक कृषि-प्रधान देश है। स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र के कर्णधारों ने राष्ट्र की प्रगति हेतु देश के प्राकृतिक साधनों के उपभोग पर बल दिया। इससे देश में बहुत-से उद्योगों का विकास हुआ। कल-कारखाने, मिल आदि की स्थापना की गयी। इससे देश के उत्पादन में वृद्धि हुई तथा इसका रहन-सहन पर भी प्रभाव पड़ा। मनुष्यों की आवश्यकतायें बढ़ीं। इससे उनके मानवीय संबंधों में जटिलता आयी। विज्ञान ने समाज के ढाँचे में आमूल परिवर्तन किया। हमारे समाज का जो पहले सरल रूप था, उसमें जटिलता आ गयी। वैज्ञानिक आविष्कारों ने ग्रामीण वातावरण को अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण के सम्पर्क में ला दिया। इन आविष्कारों के कारण आज का विश्व बहुत छोटा हो गया है। ग्रामीण जीवन को भी इन आबिष्कारों द्वारा बहुत प्रभावित किया गया है। गाँवों में आज बिजली, ट्यूबवैल, नवीन खादों, कृषि में नये-नये यन्त्रों का प्रयोग होने लगा है। आज का ग्रामीण अपने वातावरण के ज्ञान से ही संतुष्ट नहीं रह सकता। बल्कि उसकी अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण के ज्ञान के विषय में भी जानने की जरूरत है। वैज्ञानिक आविष्कारों की प्रतिस्पर्धी ने विश्व को ध्वंस की तरफ अग्रसर कर दिया है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि इसी प्रतिस्पर्धा ने उसे दो विश्व-युद्धों का सामना कराया एवं तीसरे की तरफ अग्रसर कर रही है। अगर मानव-जाति को विनाश से बचाना है तो इसके लिये सामाजिक शिक्षा का ज्ञान होना जरूरी है जिससे वह मानवीय संबंधों तथा लगावों का ज्ञान प्राप्त कर सकें। इसी आवश्यकता की पूति हेतु प्रत्येक देश सामाजिक शिक्षा को अपने देश की शिक्षा-व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान कर रहा है। इसी कारण भारत ने भी इसकी शिक्षा को पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। भारत में इसका अन्य कारण यह है कि भारत सदैव विश्व को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का सन्देश देता रहता है। उसके लिये भी सामाजिक अध्ययन का शिक्षण प्रारंभिक स्तर से देना आवश्यक है, जिससे वह हमेशा मानव जाति का इस क्षेत्र में नेतृत्व कर सके।

3. कल्याणकारी राज्य- भारतीय संविधान में राज्य के नीति निदेशक तत्वों का वर्णन किया गया है। अनुच्छेद 39 उस मार्ग का वर्णन करता है जिस पर चलकर कल्याणकारी राज्य की स्थापना की जा सकती है। अनुच्छेद 39 के विभिन्न भागों का उल्लेख निम्न तरह है-

अनुच्छेद 39(A)- “राज्य सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्रदान करने का प्रयत्न करेगा।”

(B) “राज्य देश के भौतिक साधनों के स्वामित्व और नियंत्रण की ऐसी व्यवस्था करेगा जिससे अधिक से अधिक सार्वजनिक कल्याण हो सके।”

(C) “राज्य इस बात का भी ध्यान रखेगा कि पूँजी तथा उत्पादन के साधनों का इस तरह से केन्द्रीयकरण न हो कि सार्वजनिक हित को किसी तरह की हानि हो।”

(D) “राज्य प्रत्येक नागरिक को अर्थात् सभी स्त्री तथा पुरुष को समान कार्य हेतु समान वेतन प्रदान करेगा।”

(E) “राज्य श्रमिक पुरुषों, स्त्रियों तथा बालकों के स्वास्थ्य एवं शक्ति और बालकों की सुकुमार व्यवस्था का दुरुपयोग नहीं होने देगा। साथ ही वह ऐसी व्यवस्था करेगा जिससे नागरिकों को आर्थिक विवशता के कारण ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु या शक्ति अथवा स्वास्थ्य के अनुकूल न हों।”

(F) राज्य शिशुओं एवं किशोरों की शोषण से तथा नैतिक तथा आर्थिक परित्याग से रक्षा करेगा।”

अनुच्छेद 40- “राज्य अपने नागरिकों के पौष्टिक आहार एवं जीवन-स्तर को उच्च बनाने और सार्वजनिक स्वास्थ्य के सुधार को अपना प्राथमिक कर्त्तव्य मानेगा।”

अनुच्छेद 42- “राज्य ऐसी व्यवस्था करेगा कि सभी नागरिकों को यथोचित एवं मानवोचित दशायें प्राप्त हो सकें। साथ ही स्त्रियों को प्रसूति सहायता प्रदान करने का प्रयत्न करेगा।”

अनुच्छेद 45- “राज्य सब बच्चों को चौदह वर्ष की अवस्था की समाप्ति तक निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने हेतु व्यवस्था करेगा।”

राज्य ने उक्त निदेशक तत्वों के अनुसार कार्य करने के लिये व्यावहारिक कदम उठाये। पंचवर्षीय योजनाओं का कार्यान्वयन, उत्पादन के विभिन्न साधनों का राष्ट्रीयकरण, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था आदि। इससे नागरिकों के ऊपर उनके संचालन तथा संगठन का भार आया। इस तरह नागरिकों के उत्तर-दायित्वों, संस्थाओं, समितियों, संगठनों आदि में वृद्धि हुई। इस तरह उनका जीवन जटिल बना। इन मानवीय संबंधों को सरल तथा स्पष्ट करने, नागरिकों को इन दायित्वों का पूर्ण रूप से निर्वाह करने एवं जटिल जीवन को समझने हेतु व्यवस्थित रूप से सामाजिक शिक्षा देने की आवश्यकता हुई; क्योंकि व्यक्ति को परिवार में इसकी शिक्षा न मिल सकी। अतः विद्यालयों में इसकी व्यवस्थित रूप से शिक्षा देने का प्रबन्ध किया गया तथा सामाजिक अध्ययन का शिक्षण इनको सरल और स्पष्ट करने हेतु अति उपयोगी समझा गया।

4. समाजवादी राज्य- भारतीय समाज में दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि उसने समाजवादी समाज की स्थापना की तरफ कदम उठाया। पाश्चात्य देशों में इसको हिंसात्मक क्रान्ति द्वारा ग्रहण करने का प्रयत्न किया गया, लेकिन भारतीय समाज ने इस तरफ शान्तिपूर्ण कदम उठाये। उन्होंने इसको सर्वोदय एवं भूदान आदि अहिंसात्मक आन्दोलनों द्वारा ग्रहण करने का बीड़ा उठाया। हमारे स्वर्गीय प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था “मैं समाजवादी राज्य में विश्वास करता हूँ तथा शिक्षा को इस ध्येय की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करना चाहिये।” अगर शिक्षा इस उद्देश्य को प्राप्त करना चाहती है तो उसे अपने पाठ्यक्रम में उन विषय-सचियों को रखना पड़ेगा जिनके द्वारा नागरिकों में सामाजिक कुशलता, सहयोग, सहकारिता, सामूहिकता, सामाजिक न्याय आदि गुणों का विकास किया जा सके। सामाजिक अध्ययन इस उद्देश्य की प्राप्ति में बहुत ही मददगार है। इसके शिक्षण का मुख्य ध्येय सामाजिक चरित्र का निर्माण करना है।

उपर्यक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि भारतीय समाज के दृष्टिकोण में जो परिवर्तन हआ उसमें नागरिकों को व्यवस्थित होने हेतु सामाजिक अध्ययन का शिक्षण अत्यन्त आवश्यक है। इसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु इसको शिक्षा के पाठ्यक्रम में स्थान दिया गया।

5. सर्वोदय एवं ग्राम-पंचायतों की व्यवस्था- विनोबा भावे ने सर्वोदय के आन्दोलन को चलाकर भारतीय समाज में महान परिवर्तन लाने का प्रयत्न किया। इस आन्दोलन का प्रमख उद्देश्य समाज में समस्त लोगों को उठाना है। सभी जन.चाहे वे किसी धर्म अथवा जाति के हों उनको विकास हेत समान अवसर दिये जायें। महात्मा गांधी ने कहा कि राष्ट की उन्नति तथा प्रगति के लिये ग्रामों की प्रगति का होना आवश्यक है। इन्होंने कहा कि ग्राम स्वशासित तथा आत्म-निर्भर हों। ग्रामों की प्रगति पर ही राष्ट्र की प्रगति निर्भर है क्योंकि हमारे देश की 70 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामों में ही निवास करती है। उनके रहन-सहन के स्तर को उच्च बनाया जाये। प्रत्येक ग्राम एक स्वशासित एवं आत्म-निर्भर इकाई हो। उनकी प्रगति के लिये उन्होंने कुटीर उद्योगों के विकास, कृषि की उन्नति एवं ग्राम पंचायत के निर्माण पर बल दिया। इस तरह उन्होंने भारत में ग्राम समाजवाद की स्थापना पर बल दिया। भारतीय समाज ने इस महान शिक्षक, समाज-सुधारक एवं राष्ट्र-पिता की शिक्षाओं के अनुसार कार्य करने के लिये महत्वपूर्ण कदम उठाये। इससे घर, परिवार एवं ग्राम के वातावरण में महान् परिवर्तन हुये। इन परिवर्तनों के कारण यह जरूरत अनुभव हुई कि नागरिकों को इस तरह की शिक्षा दी जाये जिससे वे उस वातावरण में अपने को व्यवस्थित कर सकें एवं मानवीय संबंधों की जटिलता तथा सामाजिक वातावरण को सरल और स्पष्ट रूप से समझ सकें। इस आवश्यकता की पूर्ति हेतु समाजिक अध्ययन के शिक्षण को महत्वपूर्ण समझा गया, क्योंकि इसके द्वारा मानवीय संबंधों तथा सामाजिक वातावरण को स्पष्ट किया जाता है। इसके अलावा यह अध्ययन सामाजिक एवं प्राकृतिक वातावरण की अन्योन्याश्रितता का भी ज्ञान कराता है।

6. विविध समस्यायें- जिस समय देश स्वतंत्र हुआ, उस समय उसके समक्ष विभिन्न समस्यायें आयीं जिनका समाधान राष्ट्र की प्रगति एवं उन्नति हेतु अति आवश्यक था। सामाजिक अध्ययन वह अध्ययन है जिसके द्वारा छात्रों को सामाजिक तथा प्राकृतिक वातावरण का ज्ञान एवं उनकी अन्योन्याश्रितता का ज्ञान कराकर उनमें वह सझ और कुशलता प्रदान की जाती है जिससे वह अपने व्यावहारिक जीवन की समस्याओं को सफलतापूर्वक हल कर सकें।

इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक अध्ययन की शिक्षा की आवश्यकता भारत में हुये सामाजिक परिवर्तनों के कारण हुई। अतः स्वतः यह प्रश्न उठता है कि सामाजिक परिवर्तनों के मूलभूत कारण क्या हैं? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि समाज में परिवर्तनों की प्रेरणा हमेशा मौलिक विचारों से प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ, फ्रांसिसी क्रान्ति की प्रेरणा रूसो, वाल्टेयर,दिदरो आदि के विचारों से मिली। भारत में इनकी प्रेरणा महात्मा गांधी, विनोबा भावे, स्वामी दयानन्द, राजा राम मोहन राय आदि से प्राप्त हुई। इसके अलावा मानवीय आवश्यकतायें एवं मौलिक प्रवृत्तियाँ परिवर्तन को जन्म देती हैं। एक कहावत हैं- आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है।’ आर्थिक समस्यायें भी परिवर्तन के लिये महत्वपूर्ण तत्व मानी जाती हैं। रूसी क्रान्तियाँ इन्हीं के कारण हुई।

सामाजिक अध्ययन का महत्व :

स्वतंत्रता से पूर्व शिक्षा पूर्णतया पुस्तकीय एवं सूचनात्मक थी। शिक्षा मूल रूप से जीवकोपार्जन के उद्देश्यों से प्रभावित थी। परिणामस्वरूप सिर्फ भाषा, गणित एवं भौतिक विज्ञान की शिक्षा को महत्व प्रदान किया जाता था। सामाजिक विषयों की उपेक्षा की जाती थी, क्योंकि उनका कोई व्यावसायिक महत्व नहीं था। आज के युग में सामाजिक अध्ययन के विषयों को महत्वपूर्ण माना जाता है। सामाजिक अध्ययन की शिक्षा के महत्व को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

(1) सामाजिक दृष्टि से सामाजिक अध्ययन का महत्व- सामाजिक दृष्टि से सामाजिक अध्ययन का महत्व निम्न कारणों से है-

1. सामाजिक अध्ययन छात्रों में स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित करने में मददगार है।

2. सामाजिक अध्ययन देश की विरासत एवं संस्कृति के लिये प्रेम और सम्मान तथा श्रद्धा जाग्रत करता है। यह सहयोगी भावना विकसित करता है।

4. यह समाज की प्रगति हेतु मार्ग प्रशस्त करता है।

5. सामाजिक अध्ययन समाज में एकरूपता एवं दृढ़ता लाने में मदद प्रदान करता है।

6. सामाजिक अध्ययन सामाजिक जागरुकता एवं अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास में मददगार है।

7. यह सामाजिक जीवन को उन्नत, सफल एवं समृद्ध बनाने में परम उपयोगी है।

8. यह साथियों हेतु सहिष्णुता, सहानुभूति एवं प्रेम की भावना विकसित करता है।

9. सामाजिक अध्ययन समीक्षात्मक चिन्तन की भावना विकसित करके पूर्ण जीवनयापन में सहायता देता है।

10. सामाजिक अध्ययन पूर्वद्वेषों तथा पूर्वाग्रहों को दूर करके व्यापक दृष्टिकोण के विकास में मदद प्रदान करता है।

(2) वैयक्तिक दृष्टि से सामाजिक अध्ययन का महत्व – वैयक्तिक दृष्टि से इस अध्ययन के निम्न महत्व पेश किये जा सकते हैं-

1. सामाजिक चरित्र का निर्माण-इसके अध्ययन द्वारा व्यक्ति में विभिन्न सामाजिक गुणों का विकास किया जाता है। सहयोग, सहकारिता, सहिष्णुता, निष्पक्षता आदि। ये गुण सामाजिक चरित्र के निर्माण में आधार का कार्य करते हैं।

2. विभिन्न सामाजिक आदतों एवं कुशलताओं का विकास किया जाता है।

3. व्यक्ति को मानसिक शक्तियों का विकास किया जाता है।

4. व्यावहारिक समस्याओं के समाधान हेतु तैयार किया जाता है।

5. व्यक्ति को अपने वातावरण में व्यवस्थित होने के लिये समर्थ बनाया जाता है। इसके अलावा स्वयं को अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल बनाने की क्षमता भी प्रदान की जाती है।

सामाजिक अध्ययन की शिक्षा का महत्व :

सामाजिक अध्ययन का महत्व वैयक्तिक एवं सामाजिक दृष्टि से निम्न है-

(1) यह विषय छात्रों के मानसिक विकास में विशेष रूप से मददगार होता है।

(2) इसके द्वारा छात्रों को अधिकारों एवं कर्तव्यों का समुचित ज्ञान कराया जा सकता है।

(3) यह छात्रों के सामाजिक चरित्र के विकास में योग देता है। सहयोग, प्रेम, सहकारिता जैसे का विकास इसके अध्ययन द्वारा ही होता है।

(4) यह विषय छात्रों के उत्तरदायित्व को दिशा प्रदान करता है।

(5) सामाजिक अध्ययन में विषयों को समन्वित करके पढाया जाता है जान का अखडता का बोध करते है।

(6) यह विषय छात्रा का सामाजिक-वातावरण भारत करने की शिखा देता है।

(7) सामाजिक अध्ययन द्वारा छात्र देश की विभिल ज्ञान प्राप्त करते हैं।

(8) भारतीय संस्कृति का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने हेतु यह विषय परम आ है।

(9) समाज को विभिन्न संस्थाओं,समुदायों आदि का भी यह ज्ञान कराने में विशेष मददगार होता है।

(10) इसके अध्ययन से देश-प्रेम तथा विश्व बधुत्व को भावनाओं का विकास होता है।
सामाजिक-अध्ययन का अर्थ तथा परिभाषा :

‘सामाजिक अध्ययन’ का शाब्दिक अर्थ है-“मानवीय परिप्रेक्ष्य में समाज का अध्ययन’। यह एक ऐसा विषय है जिसमें मानवीय संबंधों की विभिन्न दृष्टिकोणों से चर्चा होती है। प्राचीन काल में समाज की संरचना सरल थी तथा उसकी समस्याएं भी आसान हुआ करती थीं। व्यक्ति को सामाजिक समायोजन में विशेष कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता था, लेकिन समय की गति के साथ-साथ समाज की समस्याएं भी जटिल होती गयीं। विज्ञान तथा टेक्नॉलोजी के विकास ने जहाँ मानव-समाज को सुख-सुविधाएं प्रदान की हैं वहाँ उसके लिए कई जटिल समस्याएं भी पैदा कर दी हैं। इन समस्याओं को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझने तथा इनके उचित समाधान हेतु सहयोग देने का प्रशिक्षण व्यक्ति को बचपन से ही प्राप्त होना चाहिए। तभी वह समाज का उपयोगी सदस्य सिद्ध हो सकता है। यही कारण है कि स्कूली-विषयों में सामाजिक अध्ययन को शामिल किया है। ‘सामाजिक अध्ययन’ की अवधारणा को स्पष्ट करने हेतु कई विद्वानों ने अपने विचार प्रकट किये हैं जिनका विवरण निम्न तरह है-

श्री फोरैस्टर के विचारानुसार, “सामाजिक अध्ययन, जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, समाज का अध्ययन है तथा इसका प्रमुख उद्देश्य विद्यार्थियों को उस संसार के समझने में मदद प्रदान करना है जिसमें उन्हें रहना है ताकि वे उसके उत्तरदायी सदस्य बन सकें। इसका ध्येय विवेचनात्मक चिंतन एवं सामाजिक परिवर्तन की तत्परता को प्रोत्साहित करना, सामान्य कल्याण के लिए कार्य करने की आदत को विकसित करना, दूसरी संस्कृतियों के प्रति प्रशंसात्मक दृष्टिकोण रखना एवं यह अनुभव कराना है कि सभी मानव और राष्ट्र एक दूसरे पर आश्रित हैं।”

पीटर एच. मोटोरेला के अनुसार, “सामाजिक अध्ययन को प्रयोगात्मक क्षेत्र के साथ संबंधित करना ज्यादा उचित होगा क्योंकि इसमें वैज्ञानिक ज्ञान को उन नैतिक दार्शनिक, धार्मिक एवं सामाजिक विचारों के साथ समन्वित किया जाता है जो निर्णय लेने की प्रक्रिया में नागरिकों के सामने आते हैं।”

जॉन वी. मिकाईलिस के शब्दों में “सामाजिक अध्ययन मनुष्य एवं उसकी अपने सामाजिक एवं भौतिक वातावरण से अंत: क्रिया के साथ संबधित है, यह मानवीय संबंधों का अध्ययन करता है सामाजिक-अध्ययन का केन्द्रीय कार्य शिक्षा के केन्द्रीय लक्ष्य के अनुरूप है-अर्थात् लोकतंत्रात्मक नागरिकता का विकास।

जोरोलिमिक के अनुसार, “सामाजिक अध्ययन मानवीय संबंधों का अध्ययन है।”

वेस्ले के अनुसार, “सामाजिक अध्ययन उस विषय सामग्री को ओर इंगित करता है जिनके तथ्य एवं उद्देश्य प्रमुख रूप से सामाजिक होते हैं।”

सामाजिक अध्ययन की नवीन धारणा :

सामाजिक अध्ययन की नवीन धारणा को निम्न तथ्यों के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है-

1. आधुनिक सभ्यता को स्पष्ट करने वाला विषय- सामाजिक अध्ययन ज्ञान का वह क्षेत्र है जिसके द्वारा आधुनिक सभ्यता को स्पष्ट किया जाता है। इसकी पुष्टि में हम एम.पी. मुफात के शब्दों का उल्लेख कर सकते हैं, सामाजिक अध्ययन ज्ञान का वह क्षेत्र है जो युवकों को आधुनिक सभ्यता के विकास को समझने में मदद देता है। ऐसा करने हेतु वह अपनी विषय-वस्तु को समाज विज्ञानों एवं समसामयिक जीवन से प्राप्त करता है।”

2. शिक्षा का आधुनिक दृष्टिकोण- सामाजिक अध्ययन कुछ भी नहीं है बल्कि शिक्षा के प्रति अपनाये जाने वाले आधुनिक दृष्टिकोण का एक अंग है। हम अपने इस कथन की पुष्टि फोरेस्टर के शब्दों में कर सकते हैं, “सामाजिक अध्ययन शिक्षा के आधुनिक दृष्टिकोण का एक अंश है जिसका ध्येय तथ्यात्मक सूचनाओं को संग्रहित या एकत्रित करने की अपेक्षा मानदंडों, वृत्तियों, आदर्शों एवं रुचियों का निर्माण करना है।”

3. शिक्षण हेतु नवीन आधार प्रदान करने वाला विषय- सामाजिक अध्ययन अपनी विषय-वस्तु से आज के जटिल विश्व की सरल तथा स्पष्ट बनाने हेतु शिक्षण का नवीन आधार प्रदान करता है। इसकी पुष्टि करते हुए बाइनिंग तथा बाइनिंग ने लिखा है, “सामाजिक अध्ययन की विषय-वस्तु द्वारा एक ऐसा आधार प्रस्तुत किया जाता है जिसके द्वारा हम अपने छात्रों के समक्ष आज के विश्व को स्पष्ट तथा आसान बना सकें। इसके द्वारा छात्रों को अनिवार्य आदतों ऍवं कुशलताओं में प्रशिक्षित और उनमें ऐसी वृत्तियों तथा आदर्शों को विकसित किया जाता है जो बालक एवं बालिकाओं को लोकतंत्रीय समाज में प्रभावकारी सदस्यों के रूप में उचित स्थान ग्रहण करने योग्य बनायेंगे।”

4. क्षेत्रीय विषय के रूप में- सामाजिक अध्ययन परंपरागत विषय नहीं है बल्कि ज्ञान का एक क्षेत्र है। इस संबंध में एम.पी. मुफात ने लिखा है, “सामाजिक अध्ययन वह क्षेत्र है जो युवकों को उस ज्ञान, सूचना एवं क्रियात्मक अनुभवों के द्वारा मदद प्रदान करता है, जो मूलभूत मूल्यों, वांछित आदतों, स्वीकृत वृत्तियों एवं इन महत्वपूर्ण कुशलताओं के निर्माण हेतु जरूरी है जिनको प्रभावशाली नागरिकता का आधार माना जाता है।”

5. सामाजिक प्राणी के रूप में मानव का अध्ययन- सामाजिक अध्ययन मानव का एक सामाजिक प्राणी के रूप में अध्ययन करता है। इसकी विषय-सामग्री मानव-समाज के संगठन तथा विकास से संबंधित है। हम अपने कथन की पुष्टि ‘राष्ट्रीय शैक्षिक समुदाय आयोग’ के शब्दों में कर सकते हैं, “सामाजिक अध्ययन वह विषय-वस्तु है जो मानव-समाज के संगठन तथा विकास से संबंधित है एवं मनुष्य के सामाजिक समूहों के सदस्य के रूप में अध्ययन करती है।”

6. सामाजिक एवं भौतिक वातावरण का अध्ययन – सामाजिक अध्ययन वह अध्ययन है जो सामाजिक एवं भौतिक वातावरण की विवेचना करता है। इस संबंध में जॉन यू. माइकेलिस ने लिखां है, “सामाजिक अध्ययन का कार्यक्रम मनुष्य एवं अतीत, वर्तमान और विकसित होने वाले भविष्य के सामाजिक तथा भौतिक पर्यावरणों के प्रति उनके द्वारा की गई पारस्परिक क्रिया का अध्ययन है।”

7. मानव जीवन का अध्ययन- सामाजिक अध्ययन ज्ञान के उस क्षेत्र का नाम है जिसमें मनुष्य के जीवन का अध्ययन किया जाता है। इस संबंध में जेम्स हेमिंग ने लिखा है “सामाजिक अध्ययन के अंतर्गत हम जिस तथ्य का अध्ययन करते है,वह मनुष्य का जीवन है लेकिन इसका अध्ययन निश्चित स्थान एवं समय के संदर्भ में किया जाता है- सामाजिक अध्ययन में प्रमख रूप से इन प्रसंगों का अध्ययन किया जाता है-मनुष्य ने अतीत एवं वर्तमान में अपने वाला से किस तरह संघर्ष किया, उसने अपनी शक्तियों का उपयोग अथवा दुरुपयोग कैसे किया उसने अपने संसाधनों,विकास और सभ्यता की आवश्यक एकता को किस तरह प्रभावित किया।”

8. मानवीय संबंधों का अध्ययन- सामाजिक अध्ययन उस विषय का नाम मानवीय संबंधों का विवेचन किया जाता है। मानवीय संबंर्धा से तात्पर्य उनको पतष्य पतं ममटायों संस्थाओं, राज्यों आदि के मध्य स्थित रहते है। मनष्य के व्यक्तिगत तथा पारस्परिक और सामूहिक संबंध भी सामाजिक अध्ययन के अंतर्गत आते हैं। इस अध्ययन ज्ञान के उस क्षेत्र का नाम है, जिसमें मानवीय संबंधों तथा उनके स्पष्टीकरण पर्यावरणों का अध्ययन किया जाता है। इस संबंध में ई.बी. वेस्ले ने लिखा है, “सामाजिक अध्ययन नामक पद उन विद्यालय विषयों की तरफ संकेत देता है जो मानवीय संबंधो का विवेचन करते हैं। यह अध्ययन क्षेत्र, विषयों के एक संघ एवं पाठ्यक्रम के एक खंड का निर्माण करता है। यह खंड वह है जो प्रत्यक्ष रूप से मानवीय संबंधों से संबंधित है।”

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक अध्ययन एक विस्तृत, व्यापक तथा विशिष्ट विषय है। इस विषय की कुछ विशेषताएं हैं जिनका विवरण निम्न तरह है-

1. सामाजिक अध्ययन मनुष्यों एवं उनके समुदायों का अध्ययन है।

2. यह वह अध्ययन है जो छात्र-छात्राओं को उस वातावरण को समझने एवं उसकी व्याख्या करने में मदद प्रदान करना है जिसमें वे पैदा और विकसित हुए हैं।

3. यह मानवीय संबंधों पर बल देता है।

4. यह इस तथ्य को समझने में मदद प्रदान करता है कि आज का मानव संपूर्ण विश्व में आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से अन्योन्याश्रित है।

5. यह अध्ययन इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि मानव स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर एक साथ मिलकर जीवन-यापन और कार्य करता है।

6. यह सामाजिक संस्थाओं की उत्पत्ति तथा विकास की समझदारी है।

7. यह मनुष्य एवं उसके भौतिक पर्यावरण के मध्य होने वाली अंतःक्रिया का अध्ययन करता है। साथ ही इसके क्षेत्र में सामाजिक एवं अन्य तरह के पर्यावरणों का अध्ययन भी निहित है।

8. यह आधुनिक विश्व तथा सभ्यता को आसान और स्पष्ट बनाने में मदद प्रदान करता है। साथ ही यह छात्रों को समसामयिक समस्याओं को समझने में मदद देता है।

9. सामाजिक अध्ययन में सिर्फ विषयों का योग ही निहित नहीं है बल्कि यह एक एकीकृत उपागम है।

10. सामाजिक अध्ययन सामयिक जीवन एवं उसकी परिस्थितियों के अध्ययन पर बल देता है।

11. यह वह अध्ययन है जिसमें अतीत एवं वर्तमान में मानवता को प्रभावित करने वाले मामलों, समस्याओं और ढाँचों का अध्ययन किया जाता है।

12. सामाजिक अध्ययन समग्र ज्ञान के एक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है।

13. सामाजिक अध्ययन शिक्षण हेतु एक नवीन आधार तथा दृष्टिकोण प्रदान करता है।

14. सामाजिक अध्ययन विषयों के विभाजन की कठोरता को खत्म करके ज्ञान की सापेक्षता पर बल देता है।

15. सामाजिक अध्ययन उत्तम नागरिकता के विकास में मदद प्रदान करके लोकतंत्र को सफल तथा सुरक्षित बनाने में सहायक है।

सामाजिक अध्ययन की प्रकृति :

सामाजिक अध्ययन एक विशाल पर विशिष्ट शब्द है जिसकी प्रकृति विशाल है, यही कारण है कि सामाजिक अध्ययन को स्कूल पाठ्यक्रम में काफी महत्वपूर्ण स्थान दिया जा रहा है। यह सामान्य शिक्षा का अभिन्न अंग है। पर अफसोस अभी तक सामाजिक अध्ययन विषय को शिक्षा का अभिन्न अंग बने करीब तीस साल हो चुके हैं पर अभी तक अध्यापक इसे विभिन्न विषयों का एकीकरण मानते हैं। अध्यापक इन्हें पढ़ाते समय इतिहास एवं भूगोल को भिन्न-भिन्न विषय के रूप में पढ़ाते हैं। उन्हें कभी भी सामाजिक एवं भौगोलिक परिस्थितियों से जोड़कर नहीं पढ़ाते। इसी तरह एक धारणा यह भी है कि सामाजिक अध्ययन का अर्थ सामाजिक समस्याओं एवं सामयिक घटनाओं का अध्ययन है जो कि सत्य नहीं।

सामाजिक अध्ययन विभिन्न विषयों का मिश्रण नहीं वरन् एक अलग विषय है जो मानवीय संबंधों एवं वातावरण के सामंजस्य की जानकारी देता है। यह लोकतांत्रिक नागरिकों का निर्माण करता है, देश-प्रेम की भावना को विकसित करता है, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना को विकसित करता है। यह एक स्वतंत्र विषय है।

सामाजिक अध्ययन शब्द दो शब्दों के मेल सामाजिक + अध्ययन, से बना है। इसमें सभी सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। इससे अभिप्राय समाज का, समाज के लिए, समाज द्वारा अध्ययन अर्थात समाज संबंधी सभी संस्थाओं तथा संगठनों का अध्ययन, जिससे समाज की प्रगति होती है। अध्ययन शब्द से अभिप्राय है प्राप्त ज्ञान को व्यावहारिक रूप से जीवन में प्रयुक्त करना। इस तरह हम कह सकते हैं कि सामाजिक अध्ययन मानव के सभी दृष्टिकोणों से संपूर्ण अध्ययन पेश करता है। इसे मानव सभ्यता के विकास की श्रृंखला समझा जाता है। इसका स्वरूप जटिल एवं विशाल है। इसमें सभी सामाजिक संस्थाओं तथा संगठनों के विकास का अध्ययन किया जाता है। यह मानव जीवन के भूतकालीन, वर्तमान एवं भविष्य का अध्ययन करवाता है। इसमें सभी विषय राजनीति-शास्त्र, समाज-शास्त्र, अर्थशास्त्र, इतिहास, भूगोल के आधारभूत सिद्धांतों का अध्ययन किया जाता है।

इस तरह यह एक अंत: अनुशासित विषय है, जिसकी सामग्री मानव ज्ञान और अनुभवों पर आधारित है।
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सामाजिक विज्ञान का इतिहास
सामाजिक विज्ञान का इतिहास 1650 के बाद की आयु के प्रबुद्धता में शुरू होता है, जिसने प्राकृतिक दर्शन के भीतर एक क्रांति को देखा, बुनियादी ढांचे को बदल दिया जिससे लोगों ने समझा कि “वैज्ञानिक” क्या था। सामाजिक विज्ञान उस समय के नैतिक दर्शन से आगे आया और क्रांतियों के युग से प्रभावित था, जैसे कि औद्योगिक क्रांति और फ्रांसीसी क्रांति। सामाजिक विज्ञान विज्ञान से विकसित (प्रयोगात्मक और लागू), या व्यवस्थित ज्ञान-आधार या प्रिस्क्रिप्शनल प्रथाओं, इंटरेक्टिंग संस्थाओं के एक समूह के सामाजिक सुधार से संबंधित है।
18 वीं शताब्दी में सामाजिक विज्ञानों की शुरुआत, डीनडरोट के भव्य विश्वकोश में दिखाई देती है, जिसमें जीन-जैक्स रूसो और अन्य अग्रदूतों के लेख शामिल हैं। सामाजिक विज्ञान की वृद्धि अन्य विशिष्ट विश्वकोशों में भी परिलक्षित होती है। आधुनिक काल ने “सामाजिक विज्ञान” को पहली बार एक अलग वैचारिक क्षेत्र के रूप में इस्तेमाल किया। सामाजिक विज्ञान सकारात्मकता से प्रभावित था, वास्तविक सकारात्मक ज्ञान के अनुभव के आधार पर ज्ञान पर ध्यान केंद्रित करने और नकारात्मक से बचने; रोग संबंधी अटकलों से बचा गया। ऑगस्टे कॉमे ने चार्ल्स फूरियर के विचारों से लिए गए क्षेत्र का वर्णन करने के लिए “विज्ञान सोशल” शब्द का इस्तेमाल किया; कॉम्टे ने सामाजिक भौतिकी के रूप में भी क्षेत्र का उल्लेख किया है।
इस अवधि के बाद, विकास के पाँच मार्ग थे जो सामाजिक विज्ञान में आगे थे, जो अन्य क्षेत्रों पर कॉमटे से प्रभावित थे। एक मार्ग जो लिया गया वह था सामाजिक अनुसंधान का उदय। संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप के विभिन्न हिस्सों में बड़े सांख्यिकीय सर्वेक्षण किए गए थे। एक अन्य मार्ग की शुरुआत akenmile Durkheim ने की थी, जिसने “सामाजिक तथ्यों”, और विल्फ्रेडो पारेतो का अध्ययन किया, जो मीथेयोरेटिकल विचारों और व्यक्तिगत सिद्धांतों को खोल रहा था।
एक तीसरा साधन विकसित किया गया है, जो कि पद्धतिगत द्विभाजन से उत्पन्न होता है, जिसमें सामाजिक घटनाओं की पहचान की गई और उन्हें समझा गया; यह मैक्स वेबर जैसी हस्तियों द्वारा तैयार किया गया था। अर्थशास्त्र में आधारित चौथा मार्ग विकसित किया गया था और एक कठिन विज्ञान के रूप में आर्थिक ज्ञान को आगे बढ़ाया गया था। अंतिम रास्ता ज्ञान और सामाजिक मूल्यों का सहसंबंध था; मैक्स वेबर के एंटीपोसिटिविज्म और वर्स्टेनहिन समाजशास्त्र ने इस भेद की दृढ़ता से मांग की। इस मार्ग में, सिद्धांत (विवरण) और पर्चे एक विषय के गैर-अतिव्यापी औपचारिक चर्चा थे।
20 वीं शताब्दी की शुरुआत के आसपास, प्रबुद्धता दर्शन को विभिन्न तिमाहियों में चुनौती दी गई थी। वैज्ञानिक क्रांति के अंत के बाद से शास्त्रीय सिद्धांतों के उपयोग के बाद, विभिन्न क्षेत्रों ने प्रयोगात्मक अध्ययन के लिए गणित के अध्ययन और सैद्धांतिक संरचना के निर्माण के लिए समीकरणों की जांच की। सामाजिक विज्ञान उपक्षेत्रों का विकास कार्यप्रणाली में बहुत मात्रात्मक हो गया।
मानव व्यवहार में वैज्ञानिक जांच के अंतःविषय और क्रॉस-अनुशासनात्मक प्रकृति, इसे प्रभावित करने वाले सामाजिक और पर्यावरणीय कारकों ने सामाजिक विज्ञान पद्धति के कुछ पहलुओं में रुचि रखने वाले कई प्राकृतिक विज्ञानों को बनाया। सीमा धुंधला होने के उदाहरणों में चिकित्सा के सामाजिक अनुसंधान, समाजशास्त्र, तंत्रिका विज्ञान, जैव विज्ञान और इतिहास और विज्ञान के समाजशास्त्र जैसे उभरते हुए विषय शामिल हैं। मानव क्रिया और इसके निहितार्थ और परिणामों के अध्ययन में मात्रात्मक अनुसंधान और गुणात्मक तरीकों को एकीकृत किया जा रहा है। 20 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में, सांख्यिकी लागू गणित का एक स्वतंत्र विषय बन गया। सांख्यिकीय विधियों का उपयोग आत्मविश्वास से किया गया था।
समकालीन अवधि में, कार्ल पॉपर और टैल्कॉट पार्सन्स ने सामाजिक विज्ञानों के महत्व को प्रभावित किया। शोधकर्ता इस बात पर एकीकृत सहमति के लिए खोज जारी रखते हैं कि किस कार्यप्रणाली में प्रस्तावित “भव्य सिद्धांत” को जोड़ने के लिए विभिन्न midrange सिद्धांतों के साथ शक्ति और परिशोधन हो सकता है, जो काफी सफलता के साथ, बड़े पैमाने पर बढ़ते डेटा बैंकों के लिए उपयोग करने योग्य रूपरेखा प्रदान करना जारी रखते हैं; अधिक के लिए, धैर्य देखें। भविष्य के भविष्य के लिए सामाजिक विज्ञान, अनुसंधान के क्षेत्र में अलग-अलग क्षेत्रों से बना होगा, और कभी-कभी क्षेत्र के दृष्टिकोण में अलग होगा।
शब्द “सामाजिक विज्ञान” या तो कॉम्टे, दुर्खीम, मार्क्स और वेबर जैसे विचारकों द्वारा स्थापित समाज के विशिष्ट विज्ञानों को संदर्भित कर सकता है, या “सामान्य विज्ञान” और कला के बाहर सभी विषयों के लिए आम तौर पर। 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक, शैक्षणिक सामाजिक विज्ञानों का गठन पाँच क्षेत्रों में किया गया: कानून, शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और व्यापार, और कला का न्यायशास्त्र और संशोधन।
21 वीं सदी की शुरुआत के आसपास, सामाजिक विज्ञान में अर्थशास्त्र के विस्तार के क्षेत्र को आर्थिक साम्राज्यवाद के रूप में वर्णित किया गया है।
सामाजिक विज्ञान की शाखाएँ
सामाजिक विज्ञान विषय कॉलेज या विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ाए और शोधित ज्ञान की शाखाएं हैं। सामाजिक विज्ञान विषयों को अकादमिक पत्रिकाओं द्वारा परिभाषित और मान्यता प्राप्त है जिसमें शोध प्रकाशित किया जाता है, और सीखा सामाजिक विज्ञान समाजों और अकादमिक विभागों या संकायों से जिनके चिकित्सक हैं। अध्ययन के सामाजिक विज्ञान के क्षेत्रों में आमतौर पर कई उप-विषय या शाखाएं होती हैं, और इन के बीच भेद करने वाली लाइनें अक्सर मनमानी और अस्पष्ट दोनों होती हैं।
1. मनुष्य जाति का विज्ञान – नृविज्ञान (Anthropology)
मानव विज्ञान समग्र “मानव का विज्ञान” है, जो मानव अस्तित्व की समग्रता का विज्ञान है। अनुशासन सामाजिक विज्ञान, मानविकी और मानव जीव विज्ञान के विभिन्न पहलुओं के एकीकरण से संबंधित है। बीसवीं शताब्दी में, शैक्षणिक विषयों को अक्सर संस्थागत रूप से तीन व्यापक डोमेन में विभाजित किया गया है।
प्राकृतिक विज्ञान प्रजनन और सत्यापन योग्य प्रयोगों के माध्यम से सामान्य कानूनों को प्राप्त करना चाहते हैं। मानविकी आम तौर पर अपने इतिहास, साहित्य, संगीत और कलाओं के माध्यम से स्थानीय परंपराओं का अध्ययन करते हैं, विशेष व्यक्तियों, घटनाओं या युगों को समझने पर जोर देने के साथ। सामाजिक विज्ञान ने आम तौर पर सामाजिक घटनाओं को सामान्य रूप से समझने के लिए वैज्ञानिक तरीकों को विकसित करने का प्रयास किया है, हालांकि आमतौर पर प्राकृतिक विज्ञानों से अलग तरीकों के साथ।
मानवशास्त्रीय सामाजिक विज्ञान अक्सर भौतिकी या रसायन विज्ञान में प्राप्त सामान्य कानूनों के बजाय बारीक विवरण विकसित करते हैं, या वे मनोविज्ञान के कई क्षेत्रों में व्यक्तिगत मामलों को अधिक सामान्य सिद्धांतों के माध्यम से समझा सकते हैं। नृविज्ञान (इतिहास के कुछ क्षेत्रों की तरह) आसानी से इन श्रेणियों में से एक में फिट नहीं होता है, और नृविज्ञान की विभिन्न शाखाएँ इनमें से एक या अधिक डोमेन पर आकर्षित होती हैं।
संयुक्त राज्य अमेरिका के भीतर, नृविज्ञान को चार उप-क्षेत्रों में विभाजित किया गया है: पुरातत्व, भौतिक या जैविक नृविज्ञान, नृविज्ञान भाषाविज्ञान, और सांस्कृतिक नृविज्ञान। यह एक ऐसा क्षेत्र है जो अधिकांश स्नातक संस्थानों में पेश किया जाता है। प्राचीन ग्रीक में एंथ्रोपोस (ἄνθρςο in) शब्द का अर्थ है “इंसान” या “व्यक्ति”। एरिक वुल्फ ने समाजशास्त्रीय नृविज्ञान को “मानविकी का सबसे वैज्ञानिक, और विज्ञान का सबसे मानवतावादी” बताया।
मानवविज्ञान का लक्ष्य मनुष्यों और मानव प्रकृति का समग्र खाता प्रदान करना है। इसका मतलब यह है कि, हालांकि मानवविज्ञानी आमतौर पर केवल एक उप-क्षेत्र में विशेषज्ञ होते हैं, वे हमेशा किसी भी समस्या के जैविक, भाषाई, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहलुओं को ध्यान में रखते हैं। चूंकि नृविज्ञान पश्चिमी समाजों में एक विज्ञान के रूप में उत्पन्न हुआ था, जो जटिल और औद्योगिक थे, नृविज्ञान के भीतर एक प्रमुख प्रवृत्ति समाजों में लोगों को अधिक सरल सामाजिक संगठन के साथ लोगों के अध्ययन के लिए एक पद्धतिगत ड्राइव रही है, जिन्हें कभी-कभी मानव विज्ञान में “आदिम” कहा जाता है, लेकिन बिना किसी धारणा के “अवर”।
आज, मानवविज्ञानी “कम जटिल” समाजों जैसे शब्दों का उपयोग करते हैं या निर्वाह या उत्पादन के विशिष्ट तरीकों का उल्लेख करते हैं, जैसे “देहाती” या “वनवासी” या “बागवानी”, गैर-औद्योगिक, गैर-पश्चिमी संस्कृतियों में रहने वाले मनुष्यों का उल्लेख करने के लिए, इस तरह के लोग या लोक (नृवंश) मानवविज्ञान के भीतर बहुत रुचि के शेष हैं।
समग्र परंपराओं के प्रत्यक्ष अवलोकन के साथ-साथ जीवविज्ञान का उपयोग करते हुए समग्रता से लोगों का विस्तार से अध्ययन करने के लिए समग्र मानव विज्ञान की ओर जाता है। 1990 और 2000 के दशक में, एक संस्कृति के गठन के स्पष्टीकरण के लिए कॉल, कैसे एक पर्यवेक्षक जानता है कि जहां उसकी अपनी संस्कृति समाप्त होती है और दूसरा शुरू होता है, और नृविज्ञान लिखने में अन्य महत्वपूर्ण विषयों को सुना जाता है। वैश्विक संस्कृति को विकसित करते हुए सभी मानव संस्कृतियों को एक बड़े हिस्से के रूप में देखना संभव है। ये गतिशील रिश्ते, जो जमीन पर देखे जा सकते हैं, के रूप में कई स्थानीय टिप्पणियों को संकलित करके क्या मनाया जा सकता है, किसी भी तरह के नृविज्ञान में मौलिक बना रहता है, चाहे वह सांस्कृतिक, जैविक, भाषाई या पुरातात्विक हो।
2. संचार विषयक अध्ययन (Communication Studies)
संचार अध्ययन मानव संचार की प्रक्रियाओं से संबंधित है, जिसे आमतौर पर अर्थ बनाने के लिए प्रतीकों के साझाकरण के रूप में परिभाषित किया जाता है। अनुशासन में कई विषयों का समावेश होता है, जिसमें आमने-सामने की बातचीत से लेकर टेलीविजन प्रसारण जैसे बड़े पैमाने पर मीडिया आउटलेट शामिल हैं। संचार अध्ययन यह भी जांचता है कि संदेशों को उनके संदर्भों के राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक आयामों के माध्यम से कैसे समझा जाता है। “संचार”, “संचार अध्ययन”, “भाषण संचार”, “बयानबाजी अध्ययन”, “संचार विज्ञान”, “मीडिया अध्ययन”, “संचार कला”, “जन संचार” सहित विभिन्न विश्वविद्यालयों में कई अलग-अलग नामों के तहत संचार संस्थागत है। , “मीडिया पारिस्थितिकी”, और “संचार और मीडिया विज्ञान”।
संचार अध्ययन सामाजिक विज्ञान और मानविकी दोनों के पहलुओं को एकीकृत करता है। एक सामाजिक विज्ञान के रूप में, अनुशासन अक्सर समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, नृविज्ञान, जीव विज्ञान, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र और सार्वजनिक नीति के साथ दूसरों के बीच ओवरलैप करता है। एक मानवता के दृष्टिकोण से, संचार का संबंध बयानबाजी और अनुनय से है (संचार अध्ययन में पारंपरिक स्नातक कार्यक्रम प्राचीन ग्रीस के बयानबाजी करने वालों के लिए अपने इतिहास का पता लगाते हैं)। यह क्षेत्र बाहरी विषयों के साथ-साथ इंजीनियरिंग, वास्तुकला, गणित और सूचना विज्ञान पर भी लागू होता है।
3. अर्थशास्त्र (Economy)
अर्थशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है जो धन के उत्पादन, वितरण और खपत का विश्लेषण और वर्णन करना चाहता है। शब्द “अर्थशास्त्र” प्राचीन ग्रीक के ओइकोस, “परिवार, घरेलू, संपत्ति” और νςμοό नोमोस, “कस्टम, कानून” से है, और इसलिए इसका अर्थ है “घरेलू प्रबंधन” या “राज्य का प्रबंधन”। एक अर्थशास्त्री एक व्यक्ति है जो रोजगार के दौरान आर्थिक अवधारणाओं और डेटा का उपयोग करता है, या किसी ऐसे व्यक्ति जिसने विषय में डिग्री हासिल की हो।
लियोनेल रॉबिंस द्वारा 1932 में स्थापित अर्थशास्त्र की क्लासिक संक्षिप्त परिभाषा “विज्ञान है जो दुर्लभ व्यवहार के बीच मानव व्यवहार का अध्ययन करता है जिसका अर्थ है वैकल्पिक उपयोग करना”। कमी और वैकल्पिक उपयोग के बिना, कोई आर्थिक समस्या नहीं है। ब्रीफ़र अभी तक “लोगों की जरूरतों और इच्छाओं को पूरा करने का तरीका” और “मानव व्यवहार के वित्तीय पहलुओं का अध्ययन” है।
अर्थशास्त्र की दो व्यापक शाखाएं हैं: सूक्ष्मअर्थशास्त्र, जहां विश्लेषण की इकाई व्यक्तिगत एजेंट है, जैसे कि घरेलू या फर्म और मैक्रोइकॉनॉमिक्स, जहां विश्लेषण की इकाई समग्र रूप से एक अर्थव्यवस्था है। विषय का एक और विभाजन सकारात्मक अर्थशास्त्र को अलग करता है, जो आर्थिक घटनाओं की भविष्यवाणी और व्याख्या करना चाहता है, मानक अर्थशास्त्र से, जो कुछ मानदंडों द्वारा विकल्पों और कार्यों का आदेश देता है; इस तरह के आदेशों में आवश्यक रूप से व्यक्तिपरक मूल्य निर्णय शामिल होते हैं।
20 वीं शताब्दी के शुरुआती भाग के बाद से, अर्थशास्त्र ने बड़े पैमाने पर औसत दर्जे का ध्यान केंद्रित किया है, जो सैद्धांतिक मॉडल और अनुभवजन्य विश्लेषण दोनों को रोजगार देता है। हालांकि, मात्रात्मक मॉडल का पता शारीरिक स्कूल के रूप में लगाया जा सकता है। हाल के दशकों में अन्य सामाजिक स्थितियों जैसे कि राजनीति, कानून, मनोविज्ञान, इतिहास, धर्म, विवाह और पारिवारिक जीवन और अन्य सामाजिक संबंधों के लिए आर्थिक तर्क तेजी से लागू हुए हैं। यह प्रतिमान महत्वपूर्ण रूप से मानता है-
• संसाधन दुर्लभ हैं, क्योंकि वे सभी इच्छाओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं।
• “आर्थिक मूल्य” बाजार (हथियारों की लंबाई) लेनदेन द्वारा उदाहरण के लिए प्रकट करने के लिए भुगतान करने की इच्छा है।
संस्थागत अर्थशास्त्र, हरित अर्थशास्त्र, मार्क्सवादी अर्थशास्त्र और आर्थिक समाजशास्त्र जैसे विचारों के प्रतिद्वंद्वी विषम विद्यालय अन्य आधारभूत धारणाएँ बनाते हैं। उदाहरण के लिए, मार्क्सवादी अर्थशास्त्र मानता है कि अर्थशास्त्र मुख्य रूप से विनिमय मूल्य की जांच से संबंधित है, जिसमें से मानव श्रम स्रोत है।
सामाजिक विज्ञान में अर्थशास्त्र के विस्तार के क्षेत्र को आर्थिक साम्राज्यवाद के रूप में वर्णित किया गया है।
4. शिक्षा विज्ञान या शिक्षण विज्ञान (Education)
शिक्षा विशिष्ट कौशल को पढ़ाने और सीखने को शामिल करती है, और कुछ कम मूर्त लेकिन अधिक गहरा: ज्ञान, सकारात्मक निर्णय और अच्छी तरह से विकसित ज्ञान। शिक्षा अपने मूल पहलुओं में से एक के रूप में पीढ़ी से पीढ़ी तक संस्कृति प्रदान करती है (समाजीकरण देखें)। शिक्षित करने का अर्थ है, लैटिन शिक्षा से ‘बाहर निकालना’, या किसी व्यक्ति की क्षमता और प्रतिभा को साकार करना। यह शिक्षण विज्ञान, शिक्षण और शिक्षण से संबंधित सैद्धांतिक और अनुप्रयुक्त अनुसंधान का एक निकाय है, जो मनोविज्ञान, दर्शन, कंप्यूटर विज्ञान, भाषा विज्ञान, तंत्रिका विज्ञान, समाजशास्त्र और मानव विज्ञान जैसे कई विषयों पर आधारित है।
एक व्यक्ति की शिक्षा जन्म से शुरू होती है और जीवन भर जारी रहती है। (कुछ का मानना है कि शिक्षा जन्म से पहले ही शुरू हो जाती है, जैसा कि कुछ माता-पिता द्वारा संगीत बजाना या गर्भ में बच्चे को पढ़ना इस बच्चे के विकास को प्रभावित करेगा, इसका सबूत है।) कुछ लोगों के लिए, दैनिक जीवन के संघर्ष और विजय बहुत कुछ प्रदान करते हैं। औपचारिक स्कूली शिक्षा की तुलना में निर्देश (इस प्रकार मार्क ट्वेन की सलाह है कि “स्कूल को कभी भी अपनी शिक्षा में हस्तक्षेप न करें”)। परिवार के सदस्यों का गहरा शैक्षिक प्रभाव हो सकता है – अक्सर वे जितना महसूस करते हैं उससे अधिक गहरा – हालांकि परिवार शिक्षण बहुत अनौपचारिक रूप से कार्य कर सकता है।
5. भूगोल (Geography)
एक अनुशासन के रूप में भूगोल को मुख्य रूप से दो मुख्य उप क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है: मानव भूगोल और भौतिक भूगोल। पूर्व में निर्मित वातावरण पर मुख्य रूप से ध्यान केंद्रित किया गया है और अंतरिक्ष कैसे बनाया जाता है, मनुष्यों द्वारा देखा और प्रबंधित किया जाता है और साथ ही मनुष्यों के पास उनके द्वारा रखे गए स्थान पर प्रभाव पड़ता है। इसमें सांस्कृतिक भूगोल, परिवहन, स्वास्थ्य, सैन्य संचालन और शहर शामिल हो सकते हैं। उत्तरार्द्ध प्राकृतिक वातावरण की जांच करता है और जलवायु, वनस्पति और जीवन, मिट्टी, महासागरों, जल और भू-भागों का उत्पादन और सहभागिता कैसे होती है। भौतिक भूगोल पृथ्वी की माप से संबंधित घटनाओं की जांच करता है।
विभिन्न उपागमों का उपयोग करने वाले दो उपक्षेत्रों के परिणामस्वरूप एक तीसरा क्षेत्र सामने आया है, जो पर्यावरणीय भूगोल है। पर्यावरण भूगोल भौतिक और मानव भूगोल को जोड़ता है और पर्यावरण और मनुष्यों के बीच बातचीत को देखता है। भूगोल की अन्य शाखाओं में सामाजिक भूगोल, क्षेत्रीय भूगोल और भूविज्ञान शामिल हैं।
भौतिक और स्थानिक संबंधों के बारे में भूगोलवेत्ता पृथ्वी को समझने का प्रयास करते हैं। पहले भूगोलवेत्ता मानचित्रमेकिंग के विज्ञान पर ध्यान केंद्रित करते थे और पृथ्वी की सतह को सटीक रूप से प्रोजेक्ट करने के तरीके खोजते थे। इस अर्थ में, भूगोल प्राकृतिक विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के बीच कुछ अंतरालों को पाटता है। ऐतिहासिक भूगोल अक्सर एक कॉलेज में भूगोल के एकीकृत विभाग में पढ़ाया जाता है।
आधुनिक भूगोल एक सर्वव्यापी अनुशासन है, जो जीआईएससी से निकटता से संबंधित है, जो मानवता और उसके प्राकृतिक वातावरण को समझना चाहता है। शहरी नियोजन, क्षेत्रीय विज्ञान और ग्रह विज्ञान के क्षेत्र भूगोल से निकटता से जुड़े हैं। भूगोल के प्रैक्टिशनर जीआईएस, रिमोट सेंसिंग, एरियल फोटोग्राफी, स्टैटिस्टिक्स और ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) जैसे डेटा इकट्ठा करने के लिए कई तकनीकों और तरीकों का इस्तेमाल करते हैं।
6. इतिहास (History)
इतिहास ऐतिहासिक प्रतिमानों या सिद्धांतों के माध्यम से व्याख्या के रूप में पिछले मानव घटनाओं में निरंतर, व्यवस्थित कथा और अनुसंधान है।
इतिहास का सामाजिक विज्ञान और मानविकी दोनों में आधार है। संयुक्त राज्य अमेरिका में मानविकी के लिए राष्ट्रीय बंदोबस्ती में मानविकी की परिभाषा में इतिहास शामिल है (जैसा कि यह भाषाविज्ञान के लिए लागू होता है)। हालाँकि, राष्ट्रीय अनुसंधान परिषद इतिहास को एक सामाजिक विज्ञान के रूप में वर्गीकृत करती है। ऐतिहासिक पद्धति में वे तकनीकें और दिशानिर्देश शामिल हैं जिनके द्वारा इतिहासकार प्राथमिक स्रोतों और अन्य साक्ष्यों का उपयोग अनुसंधान और फिर इतिहास लिखने के लिए करते हैं। सोशल साइंस हिस्ट्री एसोसिएशन, 1976 में गठित, सामाजिक इतिहास में रुचि रखने वाले कई विषयों के विद्वानों को एक साथ लाता है।
7. कानून (Law)
कानून, न्यायशास्त्र का सामाजिक विज्ञान, सामान्य समानता में, एक नियम का अर्थ है जो (नैतिकता के एक नियम के विपरीत) संस्थानों के माध्यम से प्रवर्तन करने में सक्षम है। हालांकि, कई कानून एक समुदाय द्वारा स्वीकार किए गए मानदंडों पर आधारित हैं और इस प्रकार एक नैतिक आधार है।
कानून का अध्ययन सामाजिक विज्ञान और मानविकी के बीच की सीमाओं को पार करता है, जो कि इसके उद्देश्यों और प्रभावों पर शोध के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। कानून हमेशा लागू करने योग्य नहीं होता है, खासकर अंतरराष्ट्रीय संबंधों के संदर्भ में। इसे “नियमों की प्रणाली” के रूप में परिभाषित किया गया है, एक “व्याख्यात्मक अवधारणा” के रूप में न्याय को प्राप्त करने के लिए, “अधिकार” के रूप में लोगों के हितों की मध्यस्थता करने के लिए, और यहां तक कि “एक संप्रभु की आज्ञा” के रूप में भी। , एक अनुमोदन की धमकी द्वारा समर्थित, हालाँकि कोई भी कानून के बारे में सोचना पसंद करता है, यह पूरी तरह से केंद्रीय सामाजिक संस्था है।
कानूनी नीति में लगभग हर सामाजिक विज्ञान और मानविकी से सोच की व्यावहारिक अभिव्यक्ति शामिल है। कानून राजनीति है, क्योंकि राजनेता उन्हें बनाते हैं। कानून दर्शनशास्त्र है, क्योंकि नैतिक और नैतिक दृढ़ता उनके विचारों को आकार देते हैं। कानून इतिहास की कई कहानियों को बताता है, क्योंकि समय के साथ क़ानून, केस कानून और संहिताओं का निर्माण होता है। और कानून अर्थशास्त्र है, क्योंकि अनुबंध, टोट, संपत्ति कानून, श्रम कानून, कंपनी कानून और कई और अधिक के बारे में किसी भी नियम का धन के वितरण पर लंबे समय तक प्रभाव हो सकता है। संज्ञा कानून देर से पुरानी अंग्रेजी भाषा से निकला है, जिसका अर्थ कुछ निर्धारित या तय किया गया है और विशेषण कानूनी लैटिन शब्द लेक्स से आता है।
8. भाषाविज्ञान (Linguistics)
भाषाविज्ञान मानव भाषा के संज्ञानात्मक और सामाजिक पहलुओं की जांच करता है। क्षेत्र को उन क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है जो भाषाई संकेत के पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जैसे कि वाक्य रचना (नियमों का अध्ययन जो वाक्यों की संरचना को नियंत्रित करता है), शब्दार्थ (अर्थ का अध्ययन), आकारिकी (शब्दों की संरचना का अध्ययन) , ध्वन्यात्मकता (भाषण ध्वनियों का अध्ययन) और ध्वनिविज्ञान (एक विशेष भाषा के अमूर्त ध्वनि प्रणाली का अध्ययन); हालाँकि, विकासवादी भाषाविज्ञान (भाषा की उत्पत्ति और विकास का अध्ययन) और मनोविज्ञान (मानव भाषा में मनोवैज्ञानिक कारकों का अध्ययन) जैसे क्षेत्रों में काम करते हैं।
भाषा विज्ञान में आधुनिक शोध का भारी बहुमत मुख्य रूप से समकालिक परिप्रेक्ष्य (समय में किसी विशेष बिंदु पर भाषा पर ध्यान केंद्रित), और इसका एक बड़ा हिस्सा लेता है – नोम चोमस्की के प्रभाव के कारण आंशिक रूप से – संज्ञानात्मक प्रसंस्करण के सिद्धांतों का निर्माण करना है भाषा। हालाँकि, भाषा निर्वात में या केवल मस्तिष्क में मौजूद नहीं है, और संपर्क भाषा विज्ञान, क्रेओल अध्ययन, प्रवचन विश्लेषण, सामाजिक अंतःक्रियात्मक भाषा विज्ञान, और समाजशास्त्र जैसे दृष्टिकोण इसके सामाजिक संदर्भ में भाषा का पता लगाते हैं।
Sociolinguistics अक्सर पारंपरिक मात्रात्मक विश्लेषण और आंकड़ों की आवृत्ति की जांच करने में सांख्यिकी का उपयोग करते हैं, जबकि कुछ विषयों, जैसे संपर्क भाषाविज्ञान, गुणात्मक विश्लेषण पर ध्यान केंद्रित करते हैं। जबकि भाषा विज्ञान के कुछ क्षेत्रों को इस प्रकार समझा जा सकता है कि सामाजिक विज्ञानों के भीतर स्पष्ट रूप से गिरते हुए, अन्य क्षेत्र, जैसे ध्वनिक ध्वन्यात्मकता और तंत्रिका विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञानों को आकर्षित करते हैं। भाषाविज्ञान केवल मानविकी पर दूसरा स्थान रखता है, जिसने 19 वीं और 20 वीं शताब्दी में भाषाई जांच में अधिक भूमिका निभाई। फर्डिनेंड सॉसर को आधुनिक भाषा विज्ञान का जनक माना जाता है।
9. राजनीति विज्ञान (Political Science)
राजनीति विज्ञान एक शैक्षणिक और अनुसंधान अनुशासन है जो राजनीति के सिद्धांत और व्यवहार और राजनीतिक प्रणालियों और राजनीतिक व्यवहार के विवरण और विश्लेषण से संबंधित है। राजनीति विज्ञान के क्षेत्रों और उप-क्षेत्रों में राजनीतिक अर्थव्यवस्था, राजनीतिक सिद्धांत और दर्शन, नागरिक शास्त्र और तुलनात्मक राजनीति, प्रत्यक्ष लोकतंत्र का सिद्धांत, राजनीतिक शासन, सहभागी प्रत्यक्ष लोकतंत्र, राष्ट्रीय प्रणाली, क्रॉस-नेशनल राजनीतिक विश्लेषण, राजनीतिक विकास, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, विदेश नीति, शामिल हैं। अंतरराष्ट्रीय कानून, राजनीति, लोक प्रशासन, प्रशासनिक व्यवहार, सार्वजनिक कानून, न्यायिक व्यवहार और सार्वजनिक नीति। राजनीति विज्ञान भी अंतरराष्ट्रीय संबंधों और महान शक्तियों और महाशक्तियों के सिद्धांत में शक्ति का अध्ययन करता है।
राजनीतिक विज्ञान पद्धतिगत रूप से विविध है, हालांकि हाल के वर्षों में वैज्ञानिक पद्धति के उपयोग में एक उतार-चढ़ाव देखा गया है, अर्थात्, औपचारिक-कटौतीत्मक मॉडल निर्माण और मात्रात्मक परिकल्पना परीक्षण का प्रसार। अनुशासन के दृष्टिकोण में तर्कसंगत विकल्प, शास्त्रीय राजनीतिक दर्शन, व्याख्यावाद, संरचनावाद और व्यवहारवाद, यथार्थवाद, बहुलवाद और संस्थागतवाद शामिल हैं।
राजनीति विज्ञान, सामाजिक विज्ञानों में से एक के रूप में, तरीकों और तकनीकों का उपयोग करता है जो कि पूछी गई प्रकारों से संबंधित हैं: प्राथमिक स्रोत जैसे ऐतिहासिक दस्तावेज, साक्षात्कार और आधिकारिक रिकॉर्ड, साथ ही माध्यमिक स्रोत जैसे विद्वान लेखों का निर्माण और उपयोग किया जाता है। सिद्धांतों का परीक्षण। अनुभवजन्य विधियों में सर्वेक्षण अनुसंधान, सांख्यिकीय विश्लेषण या अर्थमिति, केस स्टडीज, प्रयोग और मॉडल निर्माण शामिल हैं। जॉन्स हॉपकिंस विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते समय “राजनीति विज्ञान” वाक्यांश को गढ़ने का श्रेय हर्बर्ट बैक्सटर एडम्स को दिया जाता है।
10. मनोविज्ञान (Psychology)
मनोविज्ञान व्यवहार और मानसिक प्रक्रियाओं के अध्ययन से संबंधित एक अकादमिक और अनुप्रयुक्त क्षेत्र है। मनोविज्ञान भी मानव गतिविधि के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे ज्ञान के आवेदन को संदर्भित करता है, जिसमें व्यक्तियों के दैनिक जीवन की समस्याएं और मानसिक बीमारी का उपचार शामिल है। मनोविज्ञान शब्द प्राचीन ग्रीक psych मानस (“आत्मा”, “मन”) और लॉजी (“अध्ययन”) से आया है।
मनोविज्ञान मानवविज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र से भिन्न होता है, जो मानसिक क्रियाओं और व्यक्तियों के व्यवहार के बारे में व्याख्यात्मक सामान्यीकरण पर कब्जा करने की कोशिश करता है, जबकि अन्य विषयों में सामाजिक समूहों या स्थिति-विशिष्ट मानव व्यवहार के कामकाज के बारे में वर्णनात्मक सामान्यीकरण बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। व्यवहार में, हालांकि, विभिन्न क्षेत्रों के बीच बहुत अधिक क्रॉस-निषेचन होता है। मनोविज्ञान जीव विज्ञान और तंत्रिका विज्ञान से भिन्न है कि यह मुख्य रूप से मानसिक प्रक्रियाओं और व्यवहार की बातचीत के साथ संबंधित है, और एक प्रणाली की समग्र प्रक्रियाओं, और न केवल जैविक या तंत्रिका प्रक्रियाओं से खुद को, हालांकि न्यूरोपैथोलॉजी का उपक्षेत्र अध्ययन का संयोजन करता है वास्तविक न्यूरल प्रक्रियाएं उन मानसिक प्रभावों के अध्ययन के साथ होती हैं, जो उनके अधीन हैं।
बहुत से लोग मनोविज्ञान को नैदानिक मनोविज्ञान से जोड़ते हैं, जो जीवन और मनोचिकित्सा में समस्याओं के मूल्यांकन और उपचार पर केंद्रित है। वास्तविकता में, मनोविज्ञान में सामाजिक मनोविज्ञान, विकासात्मक मनोविज्ञान, संज्ञानात्मक मनोविज्ञान, शैक्षिक मनोविज्ञान, औद्योगिक-संगठनात्मक मनोविज्ञान, गणितीय मनोविज्ञान, तंत्रिका विज्ञान और व्यवहार के मात्रात्मक विश्लेषण सहित असंख्य विशेषताएं हैं।
मनोविज्ञान एक बहुत व्यापक विज्ञान है जो शायद ही कभी एक पूरे, प्रमुख ब्लॉक के रूप में निपटा जाता है। हालांकि कुछ उप-क्षेत्रों में एक प्राकृतिक विज्ञान आधार और एक सामाजिक विज्ञान अनुप्रयोग शामिल हैं, दूसरों को सामाजिक विज्ञानों के साथ बहुत कम संबंध रखने या सामाजिक विज्ञान के साथ बहुत कुछ करने के रूप में स्पष्ट रूप से प्रतिष्ठित किया जा सकता है।
उदाहरण के लिए, जैविक मनोविज्ञान को एक सामाजिक वैज्ञानिक अनुप्रयोग (जैसा कि नैदानिक चिकित्सा है) के साथ एक प्राकृतिक विज्ञान माना जाता है, सामाजिक और व्यावसायिक मनोविज्ञान हैं, आम तौर पर बोलना, विशुद्ध रूप से सामाजिक विज्ञान, जबकि न्यूरोसाइकोलॉजी एक प्राकृतिक विज्ञान है जिसमें पूरी तरह से वैज्ञानिक परंपरा से आवेदन का अभाव है।
ब्रिटिश विश्वविद्यालयों में, एक छात्र ने मनोविज्ञान के किस सिद्धांत का अध्ययन किया है और / या केंद्रित डिग्री डिग्री के माध्यम से संप्रेषित किया गया है पर जोर: B.Bsy। प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञान, B.Sc. एक मजबूत (या संपूर्ण) वैज्ञानिक एकाग्रता को इंगित करता है, जबकि एक बी.ए. अधिकांश सामाजिक विज्ञान क्रेडिट को रेखांकित करता है। हालांकि यह हमेशा जरूरी नहीं होता है, लेकिन ब्रिटेन के कई संस्थानों में B.Psy, B.Sc और B.A की पढ़ाई करने वाले छात्र हैं। ब्रिटिश साइकोलॉजिकल सोसाइटी द्वारा उल्लिखित समान पाठ्यक्रम का पालन करें और विशेषज्ञता के समान विकल्प उनके लिए खुले हैं चाहे वे एक संतुलन का चयन करें, एक भारी विज्ञान का आधार, या उनकी डिग्री के लिए भारी सामाजिक विज्ञान का आधार। यदि वे बी.ए. पढ़ने के लिए आवेदन करते हैं। उदाहरण के लिए, लेकिन भारी विज्ञान-आधारित मॉड्यूल में विशेष, फिर भी उन्हें आम तौर पर बी.ए.।
11. नागरिक सास्त्र (Sociology)
समाजशास्त्र समाज का व्यवस्थित अध्ययन है, व्यक्तियों का उनके समाजों के साथ संबंध, अंतर के परिणाम और मानव सामाजिक क्रिया के अन्य पहलू हैं। शब्द का अर्थ प्रत्यय “-हिंदी” से है, जिसका अर्थ है “अध्ययन”, जो प्राचीन ग्रीक से लिया गया है, और स्टेम “समाज”, जो लैटिन शब्द समाज से है, जिसका अर्थ है “साथी”, या समाज।
अगस्टे कोम्टे (1798-1857) ने सामाजिक विज्ञान के सिद्धांतों और तकनीकों को 1838 में सामाजिक दुनिया में लागू करने के एक तरीके के रूप में, समाजशास्त्र शब्द को गढ़ा। कॉम्टे ने सामाजिक क्षेत्र की वर्णनात्मक समझ के माध्यम से इतिहास, मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र को एकजुट करने का प्रयास किया। उन्होंने प्रस्तावित किया कि समाजशास्त्रीय सकारात्मकता के माध्यम से सामाजिक बीमारियों को दूर किया जा सकता है।
द कोर्स इन पॉजिटिव फिलॉसफी और ए जनरल व्यू ऑफ पोजिटिविज्म (1844) में उल्लिखित एक युगांतरकारी दृष्टिकोण। हालांकि कॉम्टे को आमतौर पर “फादर ऑफ सोशियोलॉजी” के रूप में माना जाता है, अनुशासन औपचारिक रूप से एक और फ्रांसीसी विचारक, ओमिल दुर्खीम (1858-1917) द्वारा स्थापित किया गया था, जिन्होंने व्यावहारिक सामाजिक अनुसंधान की नींव के रूप में सकारात्मकता विकसित की। डॉर्काइम ने 1895 में बॉरदॉ विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र का पहला यूरोपीय विभाग स्थापित किया, जो सोसाइटी विधि के अपने नियमों को प्रकाशित करता है।
1896 में, उन्होंने L’nnée Sociologique पत्रिका की स्थापना की। दुरखाइम के सेमिनल मोनोग्राफ, सुसाइड (1897), कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट आबादी के बीच आत्महत्या की दर का एक अध्ययन, मनोविज्ञान या दर्शन से अलग समाजशास्त्रीय विश्लेषण।
कार्ल मार्क्स ने कॉम्टे के प्रत्यक्षवाद को खारिज कर दिया, लेकिन फिर भी ऐतिहासिक भौतिकवाद के आधार पर समाज के एक विज्ञान को स्थापित करने का लक्ष्य रखा, समाजशास्त्र की स्थापना के रूप में मरणोपरांत व्यापक अर्थ के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। 20 वीं शताब्दी की शुरुआत के आसपास, मैक्स वेबर और जॉर्ज सिमेल सहित जर्मन समाजशास्त्रियों की पहली लहर ने समाजशास्त्रीय एंटीपोसिटिववाद विकसित किया। क्षेत्र को मोटे तौर पर विशेष रूप से सामाजिक विचार के तीन तरीकों के एक समामेलन के रूप में पहचाना जा सकता है: दुर्खीमियान प्रत्यक्षवाद और संरचनात्मक कार्यात्मकता; मार्क्सवादी ऐतिहासिक भौतिकवाद और संघर्ष सिद्धांत; और वेबरियन एंटीपोसिटिविज्म और वर्स्टेनेन विश्लेषण।
अमेरिकी समाजशास्त्र मोटे तौर पर एक अलग प्रक्षेपवक्र पर पैदा हुआ, जिसमें थोड़ा मार्क्सवादी प्रभाव, कठोर प्रायोगिक पद्धति पर जोर और व्यावहारिकता और सामाजिक मनोविज्ञान के साथ घनिष्ठ संबंध था। 1920 के दशक में, शिकागो स्कूल ने प्रतीकात्मक सहभागिता का विकास किया। इस बीच, 1930 के दशक में, फ्रैंकफर्ट स्कूल ने महत्वपूर्ण सिद्धांत के विचार का नेतृत्व किया, जो मार्क्सवादी समाजशास्त्र के एक अंतःविषय रूप से विचारकों को सिगमंड फ्रायड और फ्रेडरिक नीत्शे के रूप में विविध रूप में चित्रित करता है। साहित्यिक आलोचना और सांस्कृतिक अध्ययन की बर्मिंघम स्कूल की स्थापना को प्रभावित करने के लिए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का महत्वपूर्ण सिद्धांत कुछ अपने जीवन पर ले जाएगा।
समाजशास्त्र आधुनिकता की चुनौतियों की एक शैक्षणिक प्रतिक्रिया के रूप में विकसित हुआ, जैसे औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, धर्मनिरपेक्षता, और तर्कसंगतकरण को कवर करने की एक कथित प्रक्रिया। यह क्षेत्र आम तौर पर सामाजिक नियमों और प्रक्रियाओं की चिंता करता है जो लोगों को न केवल व्यक्तियों के रूप में बांधते हैं और अलग करते हैं, बल्कि संघों, समूहों, समुदायों और संस्थानों के सदस्यों के रूप में, और संगठन और मानव सामाजिक जीवन के विकास की परीक्षा में शामिल हैं। वैश्विक सामाजिक प्रक्रियाओं के अध्ययन के लिए सड़क पर अनाम व्यक्तियों के बीच लघु संपर्कों के विश्लेषण से ब्याज का समाजशास्त्रीय क्षेत्र होता है।
समाजशास्त्री पीटर एल बर्जर और थॉमस लकमैन के संदर्भ में, सामाजिक वैज्ञानिक वास्तविकता के सामाजिक निर्माण की समझ चाहते हैं। अधिकांश समाजशास्त्री एक या अधिक उपक्षेत्रों में काम करते हैं। अनुशासन का वर्णन करने का एक उपयोगी तरीका उप-क्षेत्रों का एक समूह है जो समाज के विभिन्न आयामों की जांच करता है। उदाहरण के लिए, सामाजिक स्तरीकरण अध्ययन असमानता और वर्ग संरचना; जनसांख्यिकी अध्ययन जनसंख्या के आकार या प्रकार में परिवर्तन करता है; अपराध विज्ञान आपराधिक व्यवहार और विचलन की जांच करता है; और राजनीतिक समाजशास्त्र समाज और राज्य के बीच पारस्परिक क्रिया का अध्ययन करता है।
अपनी स्थापना के बाद से, समाजशास्त्रीय महामारी विज्ञान, पद्धति और जांच के तख्ते, काफी विस्तारित और परिवर्तित हो गए हैं। समाजशास्त्री विभिन्न तरीकों का उपयोग करते हैं, दोनों मात्रात्मक और गुणात्मक डेटा एकत्र करते हैं, अनुभवजन्य तकनीकों को आकर्षित करते हैं, और महत्वपूर्ण सिद्धांत संलग्न करते हैं। सामान्य आधुनिक विधियों में केस स्टडी, ऐतिहासिक शोध, साक्षात्कार, प्रतिभागी अवलोकन, सामाजिक नेटवर्क विश्लेषण, सर्वेक्षण अनुसंधान, सांख्यिकीय विश्लेषण और मॉडल निर्माण, अन्य दृष्टिकोणों के साथ शामिल हैं। 1970 के दशक के उत्तरार्ध से, कई समाजशास्त्रियों ने अकादमी से परे उद्देश्यों के लिए अनुशासन को उपयोगी बनाने की कोशिश की है।
सामाजिक अनुसंधान सहायता शिक्षकों, सांसदों, प्रशासकों, डेवलपर्स और सामाजिक समस्याओं को हल करने और सार्वजनिक नीति तैयार करने में रुचि रखने वाले अन्य लोगों के परिणाम, मूल्यांकन अनुसंधान, पद्धति मूल्यांकन और सार्वजनिक समाजशास्त्र जैसे उप-विषयक क्षेत्रों के माध्यम से होते हैं।
1970 के दशक की शुरुआत में, महिला समाजशास्त्रियों ने समाजशास्त्रीय प्रतिमानों और समाजशास्त्रीय अध्ययन, विश्लेषण और पाठ्यक्रमों में महिलाओं की अदृश्यता पर सवाल उठाना शुरू किया। 1969 में, नारीवादी समाजशास्त्रियों ने अमेरिकन सोशियोलॉजिकल एसोसिएशन के वार्षिक सम्मेलन में अनुशासन और रूढ़िवाद को चुनौती दी। इसने सोसाइटीज़ फॉर वुमेन इन सोसाइटी नामक संस्था की स्थापना की, और अंततः, एक नई समाजशास्त्र पत्रिका, जेंडर एंड सोसाइटी। आज, लिंग का समाजशास्त्र अनुशासन में सबसे प्रमुख उप-क्षेत्रों में से एक माना जाता है।
नए समाजशास्त्रीय उप-क्षेत्र दिखाई देते हैं – जैसे कि सामुदायिक अध्ययन, कम्प्यूटेशनल समाजशास्त्र, पर्यावरणीय समाजशास्त्र, नेटवर्क विश्लेषण, अभिनेता-नेटवर्क सिद्धांत, लिंग अध्ययन और एक बढ़ती हुई सूची, जिनमें से कई प्रकृति में क्रॉस-अनुशासनात्मक हैं।
सामाजिक अध्ययन के अतिरिक्त अध्ययन क्षेत्र
• आर्कियोलॉजी (Archaeology) वह विज्ञान है जो वास्तुकला, कलाकृतियों, विशेषताओं, बायोफैक्ट्स और परिदृश्य सहित सामग्री अवशेषों और पर्यावरण डेटा की पुनर्प्राप्ति, प्रलेखन, विश्लेषण और व्याख्या के माध्यम से मानव संस्कृतियों का अध्ययन करता है।
• क्षेत्र अध्ययन (Area studies) विशेष भौगोलिक, राष्ट्रीय / संघीय या सांस्कृतिक क्षेत्रों से संबंधित अनुसंधान और छात्रवृत्ति के अंतःविषय क्षेत्र हैं।
• व्यवहार विज्ञान (Behavioural science) एक ऐसा शब्द है जो प्राकृतिक दुनिया में जीवों के बीच की गतिविधियों और बातचीत का पता लगाने वाले सभी विषयों को समाहित करता है।
• कम्प्यूटेशनल सामाजिक विज्ञान (Computational social science) सामाजिक विज्ञान के भीतर कम्प्यूटेशनल दृष्टिकोण शामिल एक छाता क्षेत्र है।
• जनसांख्यिकी (Demography) सभी मानव आबादी का सांख्यिकीय अध्ययन है।
• विकास सामाजिक विज्ञान (Development studies) की एक बहु-विषयक शाखा का अध्ययन करता है जो विकासशील देशों को चिंता के मुद्दों को संबोधित करता है।
• पर्यावरणीय सामाजिक विज्ञान (Environmental social science) मानव और प्राकृतिक पर्यावरण के बीच अंतर्संबंधों का व्यापक, अंतःविषय अध्ययन है।
• पर्यावरण अध्ययन (Environmental studies) मानव और प्राकृतिक पर्यावरण के बीच के संबंध पर सामाजिक, मानवतावादी और प्राकृतिक विज्ञान के दृष्टिकोण को एकीकृत करता है।
• लिंग अध्ययन (Gender studies) लिंग पहचान, पुरुषत्व, स्त्रीत्व, ट्रांसजेंडर मुद्दों और कामुकता का अध्ययन करने के लिए कई सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञानों को एकीकृत करता है।
• सूचना विज्ञान (Information science) एक अंतःविषय विज्ञान है जो मुख्य रूप से सूचना के संग्रह, वर्गीकरण, हेरफेर, भंडारण, पुनर्प्राप्ति और प्रसार से संबंधित है।
• अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन (International studies) दोनों अंतरराष्ट्रीय संबंधों (अंतरराष्ट्रीय प्रणाली के भीतर राज्यों के बीच विदेशी मामलों और वैश्विक मुद्दों का अध्ययन) और अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा (व्यापक दृष्टिकोण जो जानबूझकर लोगों को सक्रिय और एक दूसरे से जुड़े दुनिया में भागीदार बनने के लिए तैयार करता है) को कवर करता है।
• कानूनी प्रबंधन (Legal management) एक सामाजिक विज्ञान अनुशासन है जो राज्य और कानूनी तत्वों के अध्ययन में रुचि रखने वाले छात्रों के लिए बनाया गया है।
• पुस्तकालय विज्ञान (Library science) एक अंतःविषय क्षेत्र है जो पुस्तकालयों के प्रबंधन, सूचना प्रौद्योगिकी, शिक्षा और अन्य क्षेत्रों के प्रथाओं, दृष्टिकोण और उपकरणों को लागू करता है; सूचना संसाधनों का संग्रह, संगठन, संरक्षण और प्रसार; और सूचना की राजनीतिक अर्थव्यवस्था।
• प्रबंधन (Management) में सभी व्यावसायिक और मानव संगठनों में एक संगठन के नेतृत्व और प्रशासन के विभिन्न स्तर होते हैं। यह पर्याप्त योजना, क्रियान्वयन और नियंत्रण गतिविधियों के माध्यम से वांछित लक्ष्यों और उद्देश्यों को पूरा करने के लिए लोगों को एक साथ लाने का प्रभावी निष्पादन है।
• विपणन (Marketing) मानव की जरूरतों और चाहता है, परिभाषित करता है और इन जरूरतों को पूरा करने और विनिमय प्रक्रियाओं और लंबी अवधि के संबंधों के निर्माण के माध्यम से उत्पादों और सेवाओं, मूल्य निर्धारण, पदोन्नति और वितरण को तैयार करने के लिए उपभोक्ता खरीद व्यवहार की प्रक्रिया को समझने और परिभाषित करने के लिए उनके परिमाण को मापता है।
• राजनीतिक अर्थव्यवस्था (Political economy) उत्पादन, खरीद और बिक्री और कानून, प्रथा और सरकार के साथ उनके संबंधों का अध्ययन है।
• लोक प्रशासन (Public administration) राजनीति विज्ञान की मुख्य शाखाओं में से एक है, और इसे मोटे तौर पर सरकारी नीति की शाखाओं के विकास, कार्यान्वयन और अध्ययन के रूप में वर्णित किया जा सकता है। नागरिक समाज और सामाजिक न्याय को बढ़ाकर जनता की भलाई का लक्ष्य क्षेत्र का अंतिम लक्ष्य है। हालांकि सार्वजनिक प्रशासन को ऐतिहासिक रूप से सरकारी प्रबंधन के रूप में संदर्भित किया गया है, यह तेजी से गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) को शामिल करता है जो मानवता की बेहतरी के लिए एक समान, प्राथमिक समर्पण के साथ काम करते हैं।
• धार्मिक अध्ययन (Religious studies) और पश्चिमी गूढ़ अध्ययन (Western esoteric studies) व्यापक रूप से धार्मिक मानी जाने वाली घटनाओं पर सामाजिक-वैज्ञानिक अनुसंधान को शामिल और सूचित करते हैं। धार्मिक अध्ययन, पश्चिमी गूढ़ अध्ययन और सामाजिक विज्ञान एक दूसरे के साथ संवाद में विकसित हुए।

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